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मेरी आत्मकहानी
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बहुलता का सूचक और उस भाषा के साहित्य का अध्ययन करने-वालो का सबसे बड़ा सहायक भी होता है। विशेपत.अन्य भाषा-भापियों और विदेशियो के लिये तो उसका और भी अधिक उपयोग होता है। इन सब दृष्टियों से शब्द-कोश किसी भाषा के साहित्य की मूल्यवान् संपत्ति और उस भाषा के भांडार का सबसे बड़ा निदर्शक होता है।

जब अंँगरेजो का भारतवर्ष के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित होने लगा तब नवागंतुक अंँगरेजो को इस देश की भाषाएँ जानने की विशेष आवश्यकता पड़ने लगी। फलत.वे अपने सुभीते के लिये देशभाषाओं के कोश बनाने लगे। इस प्रकार इस देश मे आधुनिक ढंग के और अकारादि क्रम से बननेवाले शब्द-कोशो की रचना का सूत्रपात हुआ। कदाचित् देश-भाषाओं में सबसे पहले हिंदी (जिसे उस समय अॅगरेज लोग हिंदुस्तानी कहा करते थे) के दो शब्द-कोश श्रीयुत जे० फर्गुसन नामक एक सज्जन ने प्रस्तुत किए थे,जो रोमन अक्षरो मे सन् १७७३ मे लंदन में छपे थे। इनमे से एक हिंदुस्तानी-अंँगरेजी का और दूसरा अंँगरेजी-हिंदुस्तानी का था। इसी प्रकार का एक कोश सन् १७९०मे मदरास में छपा था,जो श्रीयुत हेनरी हेरिस के प्रयत्न का फल था। सन् १८०८में जोसफटेलर और विलियम इंटर के सम्मिलित उद्योग से कलकत्ते में एक हिंदुस्तानी-अंँगरेजी कोश प्रकाशित हुआ था। इसके उपरांत १८१०में एडिनवरा में श्रीयुत जे० वी० गिलक्राइस्ट का और सन १८१७ में लदन में श्रीयुत जे० शेक्सपियर का एक अंँगरेजी-हिंदुस्तानी और एक