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मेरी आत्मकहानी
 


जौहरी की दुकान करके दिन बिताने लगे। दैवयोग से उन्होंने अनजाने में चोरी का माल खरीद लिया। इसमें वे पकडे गए और दडित हुए। मेरे पिता ने उनके घर की देखभाल की और अपने साले को अपने साथ दुकान के काम में लगाया। जब तक मेरे नाना-नानी जीते रहे, मेरे मामा उन्हीं के साथ रहे। माता-पिता की मृत्यु हो जाने पर वे हमारे घर में आकर रहने लगे। मुझे अपने नाना-नानी का पूरा पूरा स्मरण है। वे प्रायः मुझे अपने यहाँ ले जाया करते और बड़ा लाड़-प्यार करते थे। खाते समय उनको लकवा मार गया और उसी बीमारी से उनकी मृत्यु हुई। मेरे मामा ने प्रारभ मे मेरे पिता के व्यापार में पूर्ण सहयोग दिया और काम को खूब सँभाला। विवाह होने पर उनकी स्त्री भी हमारे ही यहाँ रहती थी। यह विवाह मेरे नाना के जीवन काल में ही हुआ था। विवाह हो जाने और माता-पिता के मर जाने पर उन्हें अपनी स्त्री को गहने देने की धुन समाई। दुकान से चुपचाप रुपया लेकर उन्होंने गहने बनवाए। यह हाल पीछे से खुल गया। इस पर वे अलग होकर अपनी दुकान चलाने और मेरे पिता के गाहको को फोड़ने लगे। मेरे पिता का व्यवसाय दिन दिन घटने लगा और मामा उन्नति करने लगे। पिता ने चौक की दुकान उठा दी और रानीकुएँ पर दुकान कर ली। सारांश यह कि उनकी दुकान का काम दिन दिन घटने लगा और उन्हें अर्थ-संकोच से बड़ा कष्ट होने लगा। इस प्रकार जीवन के अंतिम दिनों में लकवे की बीमारी से प्रसित होकर सितंबर सन् १९०० में उनका देहांत हो गया।