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मेरी आत्मकहानी
 

समय यह व्यवस्था थी कि दिन भर तो सत्र सहायक सपादक अलग-अलग संपादन-कार्य किया करते थे और पड़ित रामचंद्र शुक्ल पहले की संपादित की हुई स्लिपों को दोहराया करते थे, और संध्या को ४ वजे से ५ बजे तक सब संपादक मिल कर एक साथ बैठते और पड़ित रामचंद्र शुक्ल की दोहराई हुई स्लिपों को सुनते तथा आवश्यकता पड़ने पर उसमे परिवर्तन आदि करते थे। इस प्रकार कार्य भी अधिक होता था और प्रत्येक शब्द के संबंध में प्रत्येक सहायक सपादक की सम्मति भी मिल जाती थी।

मई १९१२ मे छपाई का कार्य प्रारंभ हुआ था और एक हो वर्ष के अंदर ९६-९६ पृष्ठो को चार संरयायें छपाकर प्रकशित हो गई, जिनमे ८,६६६ शब्द थे। सर्वसाधारण में इन प्रकाशित संख्याओं का बहुत आदर हुआ। सर जार्ज प्रियर्सन, डाक्टर कहाल्फ हानेली, प्रोफेसर सिलवान लेबी. रेवरेंड ई० ग्रीव्स, पड़ित मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या, महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ फा, पडित महावीरप्रसाद द्विवेदी, मिस्टर रमेशचंद्र दत्त, पडित श्याम- बिहारी मिश्र आदि अनेक बडे-बड़े विद्वानो पंडितो तथा हिंदी-प्रेमियों ने प्रकाशित अंको की बहुत प्रशंसा की और अंँगरेजी दैनिक लोडर तथा हिंदी साप्ताहिक हिंदी वंगवासी आदि समाचार-पत्रों ने भी समय-समय पर उन अंको की प्रशमात्मक आलोचना की। ग्राहक-संख्या भी दिन पर दिन संतोपजनक रूप में बढ़ने लगी।

इस अवसर पर एक बात और कह टेना आवश्यक जान पड़ता