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मेरी आत्मकहानी
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है। जिस समय मैं पहले काश्मीर जाने लगा था, उस समय यही निश्चय हुआ था कि कोश-विभाग काशी में हो रहे और मेरी अनुपस्थिति में स्वर्गवासी पंडित केशवदेव शास्त्री कोश-विभाग का निरीक्षण करें। परंतु मेरी अनुपस्थिति में पंडित केशवदेव शास्त्री तथा कोश के सहायक संपादको मे कुछ अनबन हो गई, जिसने आगे चलकर और भी विलक्षण रूप धारण किया। उस समय संपादक लोग प्रबंधकारिणी समिति के अनेक सदस्यों तथा कर्मचारियों से बहुत रुष्ट और असंतुष्ट हो गए थे। कई मास तक यह झागड़ा भीषण रूप से चलता रहा और अनेक समाचार-पत्रो मे उसके संबंध मे कही टिप्पणियाँ निकलती रहीं। सभा के कुछ सदस्य तथा बाहरी सज्जन कोश की व्यवस्था तथा कार्य-प्रणाली आदि पर भी अनेक प्रकार के आक्षेप करने लगे, और कुछ सज्जनो ने तो छिपे-छिपे ही यहाँ तक उद्योग किया कि अब तक कोश के कार्य में जो कुछ व्यय हुआ है, वह सब सभा को देकर कोश की सारी सामग्री उनसे ले ली जाय और स्वतंत्र रूप से उसके सपादन तथा प्रकाशन आदि की व्यवस्था की जाय। यह विचार यहाँ तक पक्का हो गया था कि एक स्वनामधन्य हिंदी विद्वान् से संपादक होने के लिये पत्र-व्यवहार तक किया गया था। साथ ही मुझे उस काम से विरत करने के लिये मुझ पर प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न रीति से अनेक प्रकार के अनुचित आक्षेप तथा दोपारोपण किए गए थे। इस आंदोलन में व्यक्तिगत भाव अधिक था। पर थोडे ही दिनों में यह अप्रिय और हानिकारक आंदोलन ठंडा पड़ गया और फिर सब कार्य सुचारुरूप से पूर्ववत्