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मेरी आत्मकहानी
 

है। यदि इस संबंध में कुछ कहा जा सकता है वो इतना ही कि इन महाशयो ने चोरी पकड़े जाने के भय से इस कोश के नाम का उल्लेख करना भी अनुचित समझा है।

जो कुछ ऊपर लिखा जा चुका है, उससे स्पष्ट है कि इस कोश के कार्य में आरंभ से लेकर अंत तक पड़ित रामचंद्र शुक्ल का सबंध रहा है, और उन्होंने इसके लिये जो कुछ किया है, वह विशेष रूप से उल्लिखित होने योग्य है। यदि यह कहा जाय कि शब्द-सागर. की उपयोगिता और सर्वांगपूर्णता का अधिकांश श्रेय पडित रामचंद्र शुक्ल को प्राप्त है, तो इसमे कोई अत्युक्ति न होगी। एक प्रकार से यह उन्हीं के परिश्रम, विद्वत्ता और विचार शीलता का फल है। इतिहास, दर्शन, भाषा-विज्ञान, व्याकरण, साहित्य आदि के सभी विषयों का समीचीन विवेचन प्राय उन्हीं का किया हुआ है। यदि 'शुक्ल जी सरीखे विद्वान् की सहायता न प्राप्त होती तो केवल एक या दो सहायक संपादकों की सहायता से यह कोश प्रस्तुत करना असंभव ही होता। शब्बों को दोहराकर छापने के योग्य ठीक करने का भार पहले उन्हीं पर था। कटाचित् यहाँ पर यह कह देना अत्युक्ति न होगी कि कोश ने शुक्ल जी को बनाया और कोश को शुक्ल जी ने, जिस प्रकार सभा को मैने बनाया और सभा ने मुझे, फिर आगे चलकर थोड़े दिनों बाद उनके सुयोग्य साथी बाबू रामचंद्र वर्मा ने भी इस काम मे उनका पूरा-पूरा हाथ बंटाया और इसी लिये इस कोश को प्रस्तुत करनेवालो में दूसरा मुख्य स्थान बाबू रामचंद्र वर्मा को प्राप्त है। कोश के साथ उनका सबंध भी प्राय. आदि से अंत तक रहा है