त्यागपत्र स्वीकार किया जाय। इसके लिये उन लोगो ने पडित महावीर- प्रसाद द्विवेदी को चुना और बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने उन्हे सपादकत्व स्वीकार करने के लिये पत्र भी लिखा, पर द्विवेदी जी ने उसे स्वीकार न किया। हारकर यह निश्चय करना पड़ा कि जहाँ मैं रहूँ वहीं कोशका- र्यालय भी रहे। यह सब हुआ पर कोश-कार्यालय के कार्यकर्त्ताओ की देर से आने की आदत न छूटी। मैं खूब समझता था कि साहित्यिक कार्य में बहुत खींच-तान करना लाभदायक न होगा। चुपचाप मैं इन लोगो की बातो को सहता रहा और किसी प्रकार जाकर यह कार्य समाप्त हुआ। पडित केशवदेव शास्त्री की घृष्टता का मैं एक उदाहरण देता हूँ। वे अपने को सव विद्याओं में पारंगत समझते थे। प्रथम साहित्य-सम्मेलन की स्वागतसमिति के अध्यक्ष मेरे मित्र राय शिवप्रसाद थे। उनका भापण मैंने लिखा था। उस पर कलम चलाने और उसे सुधारने का साहस इन शास्त्री जी ने किया। जब उनका संशोधित भाषण मेरे सामने रखा गया तो मुझे बड़ा बुरा लगा। मैंने उसको फाड़कर चिथडे-चिथड़े कर दिया। पीछे से इन टुकड़ों को जोड़कर राय शिवप्रसाद ने अपना भाषण तैयार किया। इस घटना के दूसरे दिन पंडित राम- नारायण मिश्र अपनी प्रकृति के अनुसार मुझसे मिलने आए और बात-चीत में इन्होंने इस बात का उद्योग किया कि उनकी ओर से मेरा मन मैला न हो जाय। मैं उनके इस स्वभाव से भली भाँति परिचित था। मैंने इस घटना का फिर किसी से उल्लेख नहीं किया।
(२) १८ जनवरी सन् १९१३ को संयुक्त-प्रदेश के लेफ्टनेंट: