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मेरी आत्मकहानी
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और वह नागरी-प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित हुआ। पीछे जब साहित्य के इतिहास की हिंदीशब्दसागर मे प्रस्तावनारूप से देने की जल्दी मची तव इस विचार में परिवर्तन हुआ। जो प्रूफ आता था वह संध्या को शुक्ल जी के पास भेज दिया जाता था। प्रात काल जब मैं घूमने निकलता तब उनके यहाँ जाता और प्रूफ तथा नई कापी ले आता। कभी-कभी पंडित केशवप्रसाद मिश्र भी मेरे साथ जाते। यह कम महीनो चला और तब जाकर यह अंश तैयार होकर छप गया। जब प्रस्तावना का अंतिम पृष्ठ छपने को था तब शुक्ल जी ने बिना कुछ कहे सुने प्रेस में जाकर प्रस्तावना के अंत में अपना नाम दे दिया। कदाचित् उनकी इस समय यह भावना हुई होगी कि मेरी इस अपूर्व कृति में किसी दूसरे का साझा न हो। अपनी कृति पर अभिमान होना स्वाभाविक है―

निज कवित्त केहि लाग न नीका।
सरस होइ अथवा अति फीका॥

यह कृति तो उत्कृट थी। अतएव इस पर अभिमान होना कोई आश्चर्य की बात न थी, पर इस प्रकार चुपचाप अपना नाम छपवा देने में दो बातें सप्ट हुई। एक तो यह कि वे किसी के सहयोग में अब काम करने को उद्दत न थे और दूसरे अनजाने में उन्होंने मेरे भाषा के इतिहास को भी अपना लिया। ऐसी ही एक घटना तुलसीग्रंथावली के सबंध में भी हुई। उसके तृतीय भाग में भिन्न-भिन्न लोगों के लेख थे। प्रस्तावना शुक्ल जी की लिखी हुई थी। उसके दो खंड चरित्र-खंड और आलोचना-खंड थे। चरित्र-खंड मेरी

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