पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७८
मेरी आत्मकहानी
 

एक कृति को घटा-बढाकर प्रस्तुत किया गया था। यद्यपि भूमिका में शुक्ल जी ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था, पर भ्रम के लिये स्थान था। मुझे आश्चर्य है कि यह भावना इतनी देर मे क्यो प्रबल हुई। यदि यह पहले उत्पन्न हो जाती तो कदाचित् शब्दसागर के प्रत्येक शब्द पर जो उनका संपादित किया हुआ था, कोई ऐसा चिह्न वे बना देते जिससे उनकी कृति स्पष्ट हो जाती। इसके कुछ दिनो बाल शुक्ल जी ने मुझसे स्पष्ट कह दिया कि हम फरमायशी काम नहीं कर सकते। उस दिन से फिर मैंने कभी किसी ग्रंथ के लिखने के लिये उनसे नहीं कहा। इसका क्या परिणाम हुआ यह मेरे कहने की बात नहीं है। जब कोश छप गया तब शुक्ल जी के द्वितीय पुत्र ने आकर मुझसे कहा कि दोनो पुस्तके भाषा और साहित्य का इतिहास, एक ही जिल्द मे छपे, पर नाम अलग-अलग रहे। मैं नहीं कह सकता कि उसने यह अपने मन से कहा या शुक्ल जी के आदेशानुसार। मैने इस प्रस्ताव को स्वीकार नही किया और यह निश्चय किया कि मै स्वयं साहित्य का इतिहास लिखूँगा। मेरा विचार था कि भिन्न-भिन्न कालो की प्रवृत्तियो का विवेचन और वर्णन किया जाय, केवल किसी काल के कवियों की कविताओ को चुनकर न दिया जाय और न उन पर मत प्रकट किया जाय। यह काम १९३० में जाकर सम्पन्न हुआ। यह बड़ी सजधजके साथ प्रकाशित हुआ। इस सबंध में एक घटना का उल्लेख कर देना क्दाचित अनुचित न होगा। विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित अधिकारी ने एक दिन बातो के सिलसिले में मुझसे कह दिया