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मेरी आत्मकहानी
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कि एक उदार महाशय ने किसी उच्चतम अधिकारी से जाकर कहाँ है कि यह ग्रंथ तुम्हारा लिखा नहीं है, दूसरे से लिखवाकर तुमने अपना नाम दे दिया है। मैंने किसी से इस बात को नहीं कहा अपने मन में ही रखा। आज पहले-पहल प्रकाशित करता हूॅ। शुक्ल जी की परिवर्तित भावना का एक नमूना और देना चाहता हूॅ। अभ्युदय के एक संवाददाता ने सन् १९३४ में शुक्ल जी से मिलकर कुछ प्रश्न किए जिसका प्रकाशन उस पत्र में हुआ। उसमें एक प्रश्न यह था कि “क्या आपने भाषा-विज्ञान लिखा है?” कुछ उत्तर न देकर शुक्ल जी मुसकरा दिए। इससे जो अनुमान हो सकता है वह स्पष्ट है। शुक्ल जी ने मेरी “भाषा-विज्ञान” नामक पुस्तक प्रकाशित होने के पूर्व देखी भी न थी। पर मुसकराहट का यह अर्थ था कि हाँ, पुस्तक उन्हीं को लिखी है। इस प्रकाशन का जब उन्हें पता लगा तब उन्होंने मुझे यह पत्र मिर्जापुर से २१-६-३४ को लिखा― “प्रिय बाबू साहब,

एक सज्जन से कल मुझे मालूम हुआ कि “अभ्युदय” मे मेरा कोई वक्तव्य प्रश्नोत्तररूप में प्रकाशित हुआ है। मैं यहाँ “अभ्युदय” की वह सख्या ढुँढ़वा रहा हूँ, पर अभी तक मिली नहीं। मैं नहीं जानता कि उसमे क्या छपा है?

एक महीने से ऊपर हुआ कि काशी में मेरे यहाँ सहसा मि० तकरू पहुँचे और कहा कि मुझे आपसे दो वाते पूछनी है। उन्होंन पूछा―“हिदी-शब्द-सागर की भूमिका के रूप में हिंदी-भाषा और साहित्य के इतिहास दिए गए हैं, क्या दोनों इतिहास आप ही के