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पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२०२

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मेरी आत्मकहानी
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च्युत होंगे। किंतु साथ ही एक सार्वदेशिक भाषा के स्थान में हिंदी का ही व्यवहार करे और इसी व्यवहार को सुचारू रूप से पूर्ण करने के लिये हिंदी भाषा सीखे। २३-२४ वर्ष पूर्व विद्यार्थी-जीवन में हिंदी का नाम लेने-मात्र से उपहास होता था। आज हम सब इस स्यान में एकत्र होकर उसके प्रति स्नेह प्रकट करते हैं। अस्तु, अब मैं मूल विषय की ओर आता हूॅ। हिंदी का प्रचार क्यो हो? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि वह ऐसी सरल, सुलभ और सुबोध है कि प्राय, सभी प्रांतो के लोग थोड़े प्रयास से उसे सीख सकते हैं। मद्रासी महाशय अँगरेजी में न बोलकर हिंदी में बोल सकते हैं। चाहे वे सुंदर रीति से अपने मनोगत भावो को न प्रकट कर सकें, पर किसी प्रकार उनका आशय सर्वसाधारण पर प्रकट हो ही जाता है। इतना ही नहीं, हिंदी का प्राचीन साहित्य भली भॉति परिपूर्ण है। प्राचीन वैभव मनुष्य को आनदित करता है। प्राचीन गौरख और महत्व के बिना हमारी उन्नति नहीं हो सकती। इस भाषा की लिपि भी जैसी सुंदर, सुवाच्य और सुस्पष्ट है वैसी अन्य किसी भाषा की नहीं।

“हमने अपना उद्देश्य कह सुनाया। मध्य प्रदेशवालो का उत्साह अपूर्व है। यहाँ की आर्थिक शक्ति के विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। उसी शक्ति के प्रभाव से यह सब संभव हो गया है। आप लोग जानते ही हैं कि महायल्न के लिये क्या-क्या चाहिए। जब आपने इस सम्मेलन के लिये इतना किया है तब अवश्य ही माता की सहायता करने में आप पीछे न रहेगे। माता का ऋण सबसे भारी होता है। वास्तव में हमारी तीन माताएँ है―एक के लिये क्या-क्या

फा० १३