पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९४
मेरी आत्मकहानी
 

जन्मदात्री, दूसरी पालन-पोषण करनेवाली और तीसरी हृदयस्थ भावो को प्रकट करनेवाली अर्थात् भाषा। भाषा का ऋण बहुत भारी है। इसे पूर्ण करने के लिये हृदय उदार होना चाहिए। स्वागतकारिणी समिति का खर्च छोड़कर इन सात वर्षों में आप लोगो ने ३४,०००) दिया है। हमारी कामना है कि हम लोग हिदी-विश्वविद्यालय देखे। नगर-नगर में नागरी पुस्तकालय हो। काशी की नागरी-प्रचारिणी सभा ने इसके लिये कोई पौने दो लाख रुपया २३ वर्षों में जमा किया है। आप सब मिलकर एक वर्ष का कार्य चलाइए, माता को भूल न जाइए। आपकी मातृभाषा अन्य भाषाओं से बुड्ढी है। माता की ममता कम नहीं होती। वह सदा सहायता पहुॅचाती है। सुमाता को सुपूतो की आवश्यकता है।”

सम्मेलन को समाप्त करते हुए भी मैंने भाषण किया था, पर रिपोर्ट में उसका सारांश नहीं दिया है।

(६) जून सन् १९१८ में पडित गौरीशकर हीराचंद ओझा और पंडित चद्रवर शर्मा गुलेरी के उद्योग से मुशी देवीप्रसाद, मुसिफ जोधपुर, १०,०००) का दान करने के लिये उद्दत हुए। यह दान उन्होंने ऐतिहासिक पुस्तकों के प्रकाशित करने के लिये काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा को दिया। इस दानपत्र को लिखवाने तथा बबई बक के ७ हिस्सो का सर्टिफिकेट लेने के लिये मुझे ओझा जी ने अजमेर बुलाया। वहाँ कोई विशेष घटना नहीं हुई। दो-तीन दिन टालमटोल करके मुंशी जी ने दानपत्र लिख दिया और शेयर सर्टिफिकेट के लिए। ये सब कागज मेरी जेब में थे। मैं डाकगाड़ी