पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मेरी आत्मकहानी
१९५
 

से काशी लौट रहा था। मै जिस डब्बे में बैठा था उसमे और कोड नहीं था। कानपुर से आगे बढ़ने पर मुझे शौच जाने की आवश्यकता हुई। मैंने कोट को उतारकर खूँटी पर टॉग दिया। उसमें उस समय भी वे सब कागज थे। फिर कुछ ऐसी प्रेरणा हुई कि उन कागजो को जेब मे से निकालकर मैंने संदूक मे बंद कर दिया। शौच से जब निकला तो देखता क्या हूॅ कि मेरा कोट हवा के तेज झोके से उड़कर खिड़की की तरफ गया है। जब तक मैं दौड़कर उसे पकड़ने की धुन मे आगे बढ़ा तब तक वह बाहर उड़ गया और फिर उसका पता न चला कि कहाँ गया। घड़ी दैवी कृपा थी कि सब कागज संदूक मे बंद थे, नहीं तो न जाने कितनी आपत्ति उठानी पड़ती।

(७) अक्टूबर सन् १९१८ मे बाबू रामदास गौड़ के प्रस्ताव पर सभा ने एक उपसमिति नियमो को दुहराकर ठीक करने के लिये बनाई। नियम बने और छापकर विचार करने के लिये बाॅटे गए। सन् १९१९ के वार्षिक अधिवेशन मे और काम मे फँसे रहने के कारण मैं उपस्थित न हो सका। मैं उस समय सभा का सभापति था। मेरी अनुपस्थिति में बाबू रामदास गौड़ वार्षिक अधिवेशन के सभापति चुने गए। उन्होंने उस आसन से यह निर्णय दिया कि सभा के नए नियम विचाराधीन हैं। उनके स्वीकार होने पर नया चुनाव हो। और काम तो सब हो गया पर चुनाव स्थगित हो गया। मुझे यह पता चला कि बाबू रामदास गौड़ इस चिंता में हैं कि सभा का अधिकार-सूत्र उनके हाथ मे आ जाय और वे उसका संचालन अपनी