इस प्रकार यह आपत्ति टली। सभा पर पहली आपत्ति बाबू देवकीनंदन खत्री के मंत्रित्व में आई थी और दूसरी आपत्ति यह थी। ईश्वर ने दोनो आपत्तियों से सभा की रक्षा की और उसका उन्नतिशील मार्ग बहुत वर्षों के लिये निर्विन्न हो गया।
(८) लखनऊ के प्रवासकाल मे मेरी साहित्यिक कृतियाँ ये है―
(१) हिंदीकोविदरन्नमाला―दूसरा भाग। यह सन्१९१३ में प्रकाशित हुआ। इसके संबंध में एक घटना उल्लेखनीय है। पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का जीवन-वृत्तांत मिलने में मुझे बड़ी कठिनाई हुई। वे इस समय मुझसे असंतुष्ट थे। सन् १९०० के लगभग वे काशी आए थे और अपनी बहिन के यहाँ ठहरे थे। मैं उनसे मिलने गया और उन्होंने भी मेरे यहाँ पधारने की कृपा की। फिर दो-एक वर्ष बाद वे काशी आए और मुझे अपने आने की सूचना पहले से दे दी। जिस दिन वे आनेवाले थे उस दिन या उसके एक दिन पहले मुझे काशी के अध्यापकों का प्रतिनिधि होकर एक डेपुटेशन मे, जो लेफ्टनेट गवर्नर से मिलने जा रहा था, लखनऊ जाना पड़ा। मैं इसकी सूचना द्विवेदी जी को न दे सका। वे मेरे यहाॅ मेरी अनुपस्थिति मे आए और मुझे न पाकर बड़े असंतुष्ट हुए। यहाॅ से उनके असतोष का आरंभ हुआ। फिर हिंदी-वैज्ञानिक कोष तथा हिंदी- पुस्तकों की खोज के संबंध में मतभेद हुआ। मुझे स्मरण आता है कि कलकत्ते के भारतमित्र पत्र में उनका एक लेख छपा था और मैने भी एक लेख लिखा था। पर इसकी प्रतियाँ इस समय अप्राप्य होने से मैं उनके विषय मे कुछ नहीं कह सकता। इस मनोमालिन्य के