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मेरी आत्मकहानी
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किंचिन् उग्र है। जब यह पुस्तक प्राय समस्त छप गई तब द्विवेदी जी ने इस अंश को देखा। उन्होनें बाबू चिंतामणि घोष मे यह आग्रह किया कि यह अंश निकाल दिया जाय। मुझसे पूछा गया। मैंने कहा मुझे कुछ आपत्ति नहीं है। जो कुछ मैंने लिखा है उसकी सत्यता प्रमाणित हो गई। आश्चर्य यह है कि द्विवेदी जी अपने विरुद्ध एक शब्द भी कहीं छपा नहीं देख सकते थे। मिश्रबंधुओं के लेखो का एक संग्रह इडियन प्रेस में छप रहा था। उसमें एक या दो लेखों में द्विवेदी जी की आलोचना की प्रत्यालोचना थी। इस पर प्रेसवालो से फिर आग्रह किया गया कि ये लेख न छपें। मिश्रबंधुओ ने इस बात को स्वीकार नहीं किया और छपी हुई पुस्तक रद्दी कर दी गई। द्विवेदी जी में आत्माभिमान और क्रोध की मात्रा अधिक थी। कदाचित् जिम धेय को उन्होंने अपने सामने रखा था उसमें इन विशेषताओं की आवश्यकता वे समझते हों और यह सोचते हों कि अपनी धाक जमाने के लिये इनका प्रयोग अनिवार्य है। कुछ भी हो। पीछे से द्विवेदी जी के स्वभाव मे बड़ा परिवर्तन हो गया। वे नम्रता और शिष्टाचार की साक्षात् मूर्ति हो गए। अभी मैं लखनऊ मे ही था कि एक दिन मुझे कुछ विद्यार्थियों ने आकर सूचना दी कि द्विवेदी जी अपने भांजे से मिलने के लिये बोर्डिङ्गहाउस में आए हुए हैं। उनका यह भांजा उस समय कालीचरण हाई स्कूल में पढ़ता था। सुनते ही मैं गया और उन्हें अपने वासस्थान पर लिवा लाया। वहाँ मैंने उनका यथोचित आदर-सत्कार किया। द्विवेदी जी ने प्रसन्न होकर कहा कि हम दोनों में बहुत वैमनस्य रहा। जिंदगी का कोई ठिकाना