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मेरी आत्मकहानी
 

भारतीय संस्कृति की रक्षा करता हुआ देश में सब शास्त्रों के अध्ययन- अध्यापन का एक विशिष्ट केन्द्र हो। उस समय तो लोगों ने यही कहा था कि यह मालवीय जी का स्वप्न है जो कभी प्रत्यक्ष भौतिक रूप धारण नहीं कर सकता। कल्पना जब तीव्र होकर मूर्तिवन् प्रतीत होने लगती है तभी ससार मे बड़े-बड़े महत्वपूर्ण कामो का सूत्रपात होता है। यद्यपि उस समय मालवीय जी की कल्पना स्वपन् ही प्रतीत होती थी, पर १० वर्षों के अनवरत परिश्रम, अदम्य उत्साह और ढृंढ़ विश्वास ने इस स्वप्न को, प्रत्यक्ष कर दिखाया। इन दस वर्षों में उनकी आयोजना में भारतवर्ष और विशेषकर संयुक्त-प्रदेश में उत्साह की एक ऐसी लहर वह चली कि सब विघ्न-बाधाएँ उसके सामने विलीन हो गई और सन् १९१६-मे काशी में हिंद-विश्वविद्यालय की स्थापना हो गई। मालवीय जी के उद्योग और उत्साह की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। यद्यपि इसके पहले सेठ जमशेद जो नौशेरवाँ जी ताता ने तीस लाख रुपये का दान देकर बंगलूर मे ताता इंस्टीट्यूट की स्थापना का सूत्रपात किया था पर हिंदू-विश्वविद्यालय की योजना के सामने वह कुछ भी नहीं है। इतना अधिक धन किसी सार्वजनिक संस्था के लिये अब तक इकट्ठा नहीं हुआ था और न भारतवर्ष के किसी और विश्वविद्यालय में शिक्षा के इतने विमागो का आयोजन ही हुआ था जितना इस विश्वविद्यालय में हुआ। विश्वविद्यालय ने जितनी उन्नति की है उस सबका श्रेय मालवीय जी को है, यद्यपि उनके सहायको और सहयोगियों की भी सख्या कम नहीं है। समय-समय पर विश्वविद्यालय को जो ऋण लेकर काम चलाना और बढ़ाना पड़ा