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पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२१६

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मेरी आत्मकहानी
२०७
 

है उसके लिये भी मालवीय जी का उत्साह ही उत्तरदायी है। कुछ लोगो का कहना है कि सर सुदरलाल यदि कुछ दिन अधिक जीते रहते तो इसको ऋणप्रस्त न होना पड़ता। यह बात ठीक हो सकती है पर साथ ही यह भी संभव है कि उसकी उन्नति भी इतनी अधिक और इतनी शीघ्र न हो सकती। यहाँ पर कदाचित् यह कह देना भी अनुचित न होगा कि मालवीय जी ने जितने बड़े-बड़े कामो को अपने हाथ में लिया―जैसे अदालतों मे नागरी का प्रचार, हिंदू बोर्डिंगहाउस, मिंटो पार्क आदि―उनमे हिंदू विश्वविद्यालय ही को ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ कि वह इनके हाथों पूरा हो सका, बाकी सब अधूरे ही रह गए। मालवीय जी से मेरा पहला परिचय सन् १८९४ में हुआ था जब मै काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के पहले डेपुटेशन में बाबू कार्तिकप्रसाद और बाबू माताप्रसाद के साथ प्रयाग गया था। उस समय तो मैं केवल १९ वर्ष का एक युवा विद्यार्थी था। आगे चलकर उनसे मेरी घनिष्ठता बढ़ती गई और अंत मे मुझे उनके विश्वविद्यालय में सेवा करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन अवस्थाओं में मुझे उनके गुणो तथा त्रुटियों से विशेष-रूप से परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ। मै इन बातो का कुछ उल्लेख यथास्थान इस प्रकरण में करूंगा।

विश्वविद्यालय की स्थापना के अनंतर यह निश्चय हुआ कि एफ० ए० और बी० ए० की परीक्षा में प्रत्येक विद्यार्थी के लिये देशी भाषा एक लेख लिखकर पास करना अनिवार्य होगा। इस पर हिंदी के लिये अध्यापको की खोज होने लगी वो मालवीय जी ने पंडित रामचंद्र