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मेरी आत्मकहानी
 

शुक्ल और लाला भगवानदीन को चुना। इन दिनो गर्मी की छुट्टियों में मैं काशी आया हुआ था। शुक्ल मुझसे मिले और कहने लगे कि सर्टिफिकेट दे दीजिए तो हम लोगों की नियुक्ति हो जाय। मैंने कहा सटिफिकेट तो ले लीजिए, पर वेतन का ध्यान रखिए। यदि कम वेतन पर कार्य करना स्वीकार करेंगे तो आगे चलकर हिंदी-विभाग को बडी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। पर उन्हें उस समय यह चिंता व्यग्र कर रही थी कि शब्दसागर का कार्य समाप्त हो जाने पर हम क्या करेंगे। अस्तु, मेरी सम्मति की उन्होने उपेक्षा की और ६०) मासिक पर कार्य करना स्वीकार कर लिया।

जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, जुलाई सन् १९२१ से मैंने कालीचरण स्कूल की हेडमास्टरी से त्यागपत्र दे दिया और मैं काशी चला आया। यहाँ आने के पहले एक महानुभाव ने मुझे यह वचन दिया था कि तुम घर पर बैठे-बैठे हमारे कार्य का निरीक्षण करना, हम तुम्हें २००) मासिक देंगे। मैंने इसे स्वीकार कर लिया था और जीविका-निर्वाह की व्यवस्था से निश्चिंत हो गया था। पर काशी आ जाने पर उनके ज्येष्ठ पुत्र ने, जो उस समय समस्त कार्य की देख-भाल करने लगे थे, यह कहा कि यह नहीं हो सकता। तुम्हें हमारे कार्यालय में नित्य आकर काम करना होगा। इसे मैंने स्वीकार नहीं किया। अब मैं बाबू गोबिंदास से मिला और उन्हें सब बातें कह सुनाई। उन्होंने कहा कि तुम चिंता मत करो, मैं व्यवस्था करता हूँ। उन्होने विश्वविद्यालय में यह प्रस्ताव किया कि हिंदी-साहित्य का अध्ययन युनिवसिटी की उच्चतम परीक्षा के लिये एक स्वतन्त्र विषय माना