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मेरी आत्मकहानी
 

परीक्षा का माध्यम था। युनिवर्सिटी का नियम था कि सब विषयों की पढ़ाई और परीक्षा अँगरेजी भाषा के माध्यम-द्वारा हो। मुझे यह नियम सर्वथा अनुचित जान पडना था कि सस्कृत और हिंदी की पढाई और परीक्षा भी अँगरेजी के द्वारा हो। पर यह मेरी शक्ति के बाहर की बात थी कि मैं इसे तोड़ या बदल सकता। मैंने धैर्यपूर्वक इस बात के सुधार का उद्योग आरंभ किया और किसी को इसका आभास न मिलने दिया। पडित रामचंद्र शुक्ल तो अँगरेजी में पढ़ा सकते थे, पर लाला भगवानदीन ऐमा करने में असमर्थ थे। अतएव हम लोगो ने पढाना हिंदी में आरंभ कर दिया। बीच-बीच में अँगरेजी का प्रयोग करते जाते थे। प्रश्नपत्र अभी अँगरजी ही में छपते थे। आगे चलकर कोई-कोई पत्र हिंदी में भी छपने लगा। यह कार्य क्रमश हुआ। एक दिन सेनेट के अधिवेशन में मैंने इस बात को छेड़ा। मैंने कहा कि यह वडी अस्वाभाविक बात है कि हिंदी और संस्कृत की पढ़ाई और परीक्षा अँगरेजी में हो। इससे हमारे सस्कृत और हिंदी-साहित्य को जो हानि पहुॅचती है वह तो अत्यधिक है, साथ ही विद्यार्थियों को भी भाव समझने और उसे लिखकर स्पष्ट करने में कठिनता होती है। मालवीय जी कह बैठे कि यह अनुचित है। मैंने एक प्रश्नपत्र जो पंडित केशवप्रसाद मिश्र का बनाया हुधा था, दिखाकर कहा कि देखिए यह हिंदी में कितना सुदर हुआ है और अँगरेजी में यह कितना भद्दा हो जाता। मालवीय जी ने प्रश्नपत्र लेकर देखा और उसकी प्रशसा करते हुए कहा कि नहीं हिंदी और संस्कृत के प्रश्नपत्र जहाँ तक संभव हो उन्ही भाषायो में हों।