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मेरी आत्मकहानी
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मालवीय जी मे भावुकता की मात्रा अधिक थी। भावोन्मेप मे आकर वे आगा-पीछा कुछ नहीं सोचते थे और चट कार्य कर बैठते थे। इसमें यदि किसी नियम का भंग होता हो तो उसकी उन्हे चिता न थी। कदाचित् उनकी यह धारणा थी कि नियम कार्य की व्यवस्था ठीक करने के लिये हैं, न कि उसमे बाधा डालने के लिये। अब तो हम लोग खुलकर हिंदी के माध्यम से पढ़ाने और परीक्षा लेने लगे। अंत में जाकर यह भी निश्चय हो गया कि डाक्टरी की डिग्री के लिये भी संस्कृत और हिंदी से संबंध रखनेवाले निबंध हिंदी या संस्कृत मे लिखे जा सकते है। इस विषय पर किंचित् विस्तार से लिखने की आवश्यकता इसलिये हुई कि आजकल शिक्षा के माध्यम का प्रश्न बड़े जोरो में उठा हुआ है। कुछ परीक्षाओ मे मातृमाषा माध्यम मान ली गई है, औरो का विषय विचाराधीन है। पर इस माध्यम के प्रश्न में जो हिंदुस्तानी का पुछल्ला जोड़ दिया गया है उससे हिंदी को विशेष हानि की आशंका है तथा उच्च शिक्षा वो हिंदुस्तानी-द्वारा हो ही नहीं सकती। एक संकर भाषा की रचना करने का व्यर्थ उद्योग करके हिंदी की उन्नति के मार्ग मे काँटे बोना बुद्धिमत्ता नही कही जा सकती।

दूसरी कठिनाई, जिसका हम लोगो को सामना करना पड़ा, उपयुक्त पुस्तको का अभाव था। पद्य-साहित्य की पुस्तके वो अच्छी मात्रा में उपलब्ध थीं पर उनके अच्छे संस्करण दुर्लभ थे। भाषा-विज्ञान आलोचना -शास्त्र, हिंदी भाषा और हिंदी-साहित्य के इतिहास की पुस्तको का सर्वथा अभाव था; साहित्य के दो-एक छोटे-मोटे इतिहास जैसे ग्रियसेन के और ग्रीव्स के उपलब्ध थे, पर उनसे पूरा-