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मेरी आत्मकहानी
 

पूरा काम नहीं निकल सस्ता था। उपयुक्त गद्य-ग्रंथों का एक प्रकार से अभाव ही था। शुक्ल जी ने जायमी, भूर, तुलमी आदि के ग्रंथों के सस्करण तैयार किए और विद्वत्तापूर्ण भूमिकाएँ लिखों। मैन भाषा-विज्ञान, आलोचनाशास्त्र नाट्यशास्त्र आदि पर ग्रंथ लिखे तथा अन्य लोगों को गध-ग्रंथो के लिखने के लिये उत्साहित किया और कुछ सग्रह आप भी तैयार किए। अपने रचित ग्रंथों के विषय में मैं ययात्यान विस्तार से लिखूॅगा।

तीसरी कठिनाई अध्यापकों की अल्प संख्या थी। इसके लिये कोई उद्योग सफल होता नहीं दिखाई देता था। संयोग से ओरियंटल विभाग में हिंदी-निबंध की शिक्षा देने का निश्चय हुआ। इसके लिये पडित अयोध्यासिह उपाध्याय चुने गए। उन्हें एक दिन युनिवर्सिटी मे देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने उनसे आग्रह किया कि हमारे विमाग में भी वे कुछ कार्य-भार लें। इसको उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। उपाध्याय जी हिंदी के उत्कृष्ट कषि और सुलेखक हैं। उन्होंने हिंदी-साहित्य को अनेक रत्नों से विभूषित किया है। मुझे उनसे बड़ी आशा थी कि एक योग्य व्यक्ति के मिल जाने से हमारा काम भली भाँति चल सकेगा। पर मुझे उनके अध्यापन-कार्य से असंतोष ही रहा। वे यह नहीं समझ सकते थे कि स्कूल की पढ़ाई और कालेज की पढ़ाई में क्या अंतर है और उसे कैसे निबाहना चाहिए। कई उलट-फेर किए गए पर कहीं भी सफलता न मिली। निबंध पढ़ाने को दिया गया हो पुस्तक पढ़ाने की अपेक्षा हिंदू-संगठन और हिंदुओं के हास पर उनके व्याख्यान होने लगे। अंत में हारकर उन्हें उन्हीं के