रचित ग्रंथ पढ़ाने को दिए गए पर उस काम को भी वे पूरा न कर सके। साल भर में चौथाई पुस्तक भी न पढ़ा सके। मेरी ही भूल थी कि मै यह समझता था कि एक विद्वान् लेखक अच्छा अध्यापक भी हो सकता है। मालवीय जी को उचित था कि वे स्वयं आकर देखते, कि पढ़ाई कैसी होती है तो उनकी आँखें खुल जातीं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। अस्तु किसी प्रकार काम चलता रहा। जब लड़कियों के लिये अलग कालेज बना तब वे वहाँ हिंदी पढ़ाने के लिये भेजे गए पर मेरे समय तक सप्ताह में दो घंटे की पढ़ाई उनकी आर्ट्स कालेज मे चलती रही।
कई वर्षों के अनुभव के अनंतर हम लोगों ने हिदी के पाठ्यक्रम मे परिवर्तन करने की आवश्यकता समझी। यथासमय प्रस्ताव किए गए और वे स्वीकृत हुए। इसमे मुख्य परिवर्तन यह था कि एम० ए० के विद्यार्थी को किसी आकर भाषा (संस्कृत, पाली, प्राकृत या अपभ्रंश) या किसी दूसरी देशी भाषा (बँगला, मराठी, गुजराती,उर्दू) में भी एक प्रश्नपत्र का उत्तर देना पड़ता था। आकर भाषा के पढ़ाने का हमारे विभाग में प्रबंध न था। इसलिये मैंने एक नये व्यक्ति की नियुक्ति का प्रस्ताव किया। प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और मैने पंडित केशवप्रसाद मिश्र के नियुक्त किए जाने की सिफारिश की। पंडित केशवप्रसाद मिश्र हिदू स्कूल में संस्कृत के अध्यापक थे। मै इनकी योग्यता पर मुग्ध था। अतएव मैंने इन्हे लेने का भरसक उद्योग किया। अनेक विघ्न उपस्थित हुए पर अंत मे केशव जी की नियुक्ति हो गई। केशव जी बड़े सजन और सरल चित्त के व्यक्ति हैं, पूरे-