पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१४
मेरी आत्मकहानी
 

पूरे विद्याव्यसनी हैं, पर इनकी रूचि जितनी पढ़ने में है उतनी लिखने में नहीं। एक इन्हीं के आगे मुझे हार माननी पड़ी है। अनेक बेर इन्हे कुछ लिखने के लिये मैंने उत्साहित किया और कभी-कमी आग्रह भी किया, पर मेरे सब प्रयन्न निष्फल गए। कदाचित् इनमें आत्मविश्वास की कमी है। ये सदा सोचते हैं कि और पढ लें और जान प्राप्त कर ले तब लिखें। इसी कारण केवल मेघदूत के अनुवाद और कुछ लेखों के अतिरिक्त वे कोई साहित्यिक रचना न कर सके। इनमें एक बड़ी त्रुटि है। ये इतने सरल हैं कि कोई भी होशियार आदमी इन्हें धोखा दे सकता है। मनुष्यो की परख इन्हें प्राय बिलकुल नहीं है। यदि साक्षात् प्रमाणो के मिल जाने पर भी ये किसी को निकृष्ट समझ लेते हैं तो भी सहृदयता और सज्जनता के मारे उसमे संबंध नहीं तोडते, वरन् कभी-कभी वो उसके विपरीत भाव का मन से विरोध करते हुए भी साधारणत, उसका साथ देते हैं। उनका यह सिद्धांत जान पड़ता है कि जिसका एक बेर हाथ पकड़ लिया उसे, अनेक दोष रहने पर भी, छोड़ना मनुष्यता नहीं है। पढाने-लिखाने में तो वे पटु हैं पर और कामों में कुछ ढीले-ढाले से हैं। इनके कारण मुझे दो-एक ऐसे व्यक्तियों से काम पड़ गया जिन्होंने मुझे बहुत दु:ख दिया पर यह उनका नहीं उनके मनुष्य को न समम सक्ने का दोष है।

लाला भगवानदीन के स्वर्गवासी होने पर किसी को नियुक्त करने का प्रश्न उपस्थित हुआ। मैने डाक्टर पीताँवरदत्त बड़ध्वाल के नियुक्त होने का प्रस्ताव किया पर इसका विरोध एक दूसरे प्रभावशाली