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पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२२५

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मेरी आत्मकहानी
 

कहीं विद्यालय के विषय में वे व्याख्यान देते वहाँ हिंदी और संस्कृत- विभागो की जी खोलकर प्रशंसा करते पर स्वयं हिंदी-विभाग के प्रति उपेक्षा का भाव रखते। उनके एक अतरंग पारिपाश्विंक ने एक बेर मुझे सलाह दी कि समाचारपत्रों में मैं इसका आंदोलन करूँ। मैं इनकी चाल समझ गया। मैने उत्तर दिया कि जब समय आवेगा तब देखा जायगा। मैं अब तक मालवीय जी के इस उपेक्षाभाव को नही समझ सका हूँ। कदाचित् ‘अतिपरिचयादवज्ञा’ ही इसका कारण हो।

जब तक मैं विद्यालय में काम करता रहा, मुझे निरंतर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। दो-एक घटनाओं का मैं उल्लेख करता हूॅ।

एक समय पंडित रामचंद्र शुक्ल ने अलवर में नौकरी करने के लिये एक वर्ष की छुट्टी ली। उनके स्थान पर किसी की नियुक्ति आवश्यक थी। मैंने कहा कि एक वर्ष के लिये किसी को चुन लीजिए। मुझे आदेश मिला कि तुम अपने किसी अच्छे विद्यार्थी से काम लो। मालवीय जी के आने पर उसकी नियुक्ति हो जायगी। इस पर मैने सत्यजीवन बर्म्मा को कार्य का भार दिया। कुछ महीनों तक उसने काम भी किया, पर मालवीय जी ने आकर यह निश्चय किया कि नहीं, कोई नई नियुक्ति न होगी। विभाग के लोग आपस मे काम बाँट लें। बेचारे सत्यजीवन को अलग होना पड़ा।

एक बेर मैंने यह सोचा कि एम० ए० के विद्याथियो को भाषाविज्ञान पढ़ाने के लिये एक ऐसा नकशा बनवाया जाय जिसमे