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मेरी आत्मकहानी
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भिन्न-भिन्न भारतीय देश-भाषाओं की भौगोलिक सीमाएँ भिन्न-भिन्न रंगों में दिखलाई जाये। नक्शा तो मैने उस धन में से मँगवा लिया जो मुझे पुस्तके खरीदने के लिये स्वीकृत था, पर रँगवाने के लिये मैंने १५) माँगे। वे मुझे न मिले।

युनिवर्सिंटी के मित्रों ने मेरे सबसे अधिक प्रिय, अंतरंग और विश्वासपात्र पंडित इंद्रदेव तिवाड़ी थे। उनसे मेरी खूब पटती थी। वे मेरी कठिनाइयों को सुलझाने में सदा सहायता देते थे। ऐसे मित्रो का मिलना कठिन है। मेरे सौभाग्य से मेरे जीवन में एक यही ऐसे मित्र मिले थे जो सब प्रवस्थाओं में अपने धर्म का पूर्णतया पालन करने थे। लू लग जाने से इनका देहांत हो गया। इनकी स्मृति अभी तक मुझे कभी-कभी विद्गल कर देती है। जब ये रजिस्ट्रार हुए तो उसी दिन रात को आकर मुझे सूचना दी और अपने सपक्ष तथा विपक्षों की बातें सुनाई। वे अपनी गुप्त से गुप्त बात मुझसे कह देते थे। इनकी रजिस्ट्रारी में मैं तीन बेर युनिवर्सिटी-परीक्षाओं का परिणाम तैयार (Tabulator) करने के लिये नियुक्त हुआ। एक बेर मैंने सिंडिकेट में यह बात कही कि इसके लिये जो पुरस्कार मिलता है वह बहुत थोडा है। इस पर कहा गया कि आदमी दूने कर दो। वैसा ही हुआ और २००J वार्षिक का खर्च बढ गया। कैसी विचित्र बात है कि उसी काम के लिये पहले धन की कमी थी, पर तुरत ही उसी काम के लिये दो और व्यक्तियों का पुरस्कार देने को धन मिल गया। उस वर्ष की बात स्मरण आती है जिस वर्ष पीताँवरदत्त को डाक्टर की उपाधि मिलनेवाली थी। इस अवसर पर कई महानुभावो