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मेरी आत्मकहानी
 

को आनरेरी द्दिथी देने का उपक्रम किया गया था। युनिवर्सिटी का यह नियम है कि किसी विभाग का कोई विद्यार्थी जो उपाधि पाने के योन्य समझा जाय उसे कानवोकेशन में उपस्थित करने का अधिकार उस व्यक्ति को होगा जो उस विभाग का अध्यन तथा सेनेट का सदस्य होगा। इस नियम के अनुसार मुझे पीतांवरदत्त को उपस्थित करने का अधिकार था, पर उस वर्ष में आचार्य ध्रुव जी के लिये उपस्थित करने को कोई विद्यार्थी न था। अतएव वाइसचैंसलर महोदय ने निश्चय किया कि पीतांबरदत्त को ध्रुव जी ही उपस्थित करे। यह बात मुझे बहुत बुरी लगी पर मैं चुप रह गया। एक समय मैने सेनेट में कुछ प्रस्ताव फैकल्टी के नियमों में संशोधन करने के लिये किए। इन नियमों का संबंध कोट से भी था। अतएव मैंने सूचना दी कि मैं इन प्रस्तावों को कोर्ट में भी उपस्थित करूँगा। मैं उस समय कोर्ट का भी सदस्य था। असिस्टेंट सेक्रेटरी साहब ने जो बहुत दिनों तक संयुक्त-प्रदेश की दीवानी कचहरी के एक उच्च पद पर रह चुके थे, फतवा निकाला कि मेरी अवधि अब पूरी होनी चाहती थी अतएव मैं कोई प्रस्ताव नहीं उपस्थित कर सकता। मैंने पूछा कि आपको यह कैसे ज्ञात हुआ कि मैं फिर कोर्ट का सदस्य न चुना जाऊँगा। इसका कोई उत्तर न था, पर एक बेर जो जज साहब का फैसला हो गया तो उसकी अपील कहाँ हो सकती थी? जब सेनेट में मैंने प्रस्ताव उपस्थित किया तब मालवीय जी ने कहा कि इसका संबंध कोर्ट से भी है, अतएव यह वहाँ भी उपस्थित होना चाहिए। मैंने जज साहब के फैसले की बात कह सुनाई तब उन्होंने