गया था, परंतु आधार-स्वरूप कोई मुख्य ग्रंथ न बताया जा सका। सबसे पहले मैंने साहित्यिक आलोचना का विषय चुना और उसके लिये जिन पुस्तको का निर्देश किया गया था, उन्हे देखना आरंभ किया। मुझे शीघ्र ही अनुभव हो गया कि इस विषय का भली भाँति अध्ययन करने के लिये यह आवश्यक है कि विद्यार्थियो को पहले आलोचना के तत्वो का आरंभिक ज्ञान करा दिया जाय। इसके लिये मैंने सामग्री एकत्र करना आरभ किया। इधर मैं लिखता जाता था और उधर उसको पढ़ाता जाता था। इससे लाभ यह था कि मुझे साथ ही साथ इस बात का अनुभव होता जाता था कि विद्यार्थियों को विषय के हृदयंगम करने में कहाँ कठिनता होती है और कहाँ अधिक विस्तार या सकोच की अपेक्षा है। इस अनुभव के अनुसार मैं लिखे हुए अंश को सुधारने में भी समर्थ होता था। इस प्रकार यह ग्रंथ क्रमश प्रस्तुत हो गया। आरभ मे मैं नित्य लिखी हुई कापी पंडित रामचंद्र शुक्ल को देता जाता था कि वे उसे पढ़कर उसके सुधार के लिये आवश्यक परामर्श दें। एक दिन ऐसी घटना हुई कि लिखी हुई समस्त प्रति मुझे न मिली। बीच के कुछ पन्ने गायब थे। मैंने अपने ज्येष्ठ पुत्र को शुक्ल जी के यहाँ इसलिये भेजा कि जाकर देखो वे पन्ने कहीं छूट तो नहीं गए। बहुत खोजने पर कुछ पन्ने तथा कुछ फटे हुए टुकड़े उस चौकी के नीचे से निकले जिस पर बैठकर शुक्ल जी लिखते थे। इस अंश के पूरा करने में मुझे बड़ी कठिनाई हुई। मैंने आगे से उनके पास लिखित पन्ने न भेजे। जब चार अध्याय समाप्त हो गए तब मैंने उन्हे पडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के पास
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