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मेरी आत्मकहानी
 

परामर्श लिये भेजा। उन्होंने उन्हें देखकर लौटा दिया। उनके परामर्शो से मैंने पूरा लाभ उठाया और उनकी इस कृपा के लिये मैं कृतज्ञ हुआ।

विद्यार्थियों का आग्रह था कि यह ग्रंध शीघ्र छपवा दिया जाय। एक दिन बाबू रामचंद्र वर्म्मा ने इस ग्रंथ के लिये हुए अंश को देखा और उसे अपनी ओर से प्रकाशित करने का आग्रह किया। मैंने इस आग्रह को मान लिया और लिखी हुई प्रति उन्हें छापने के लिये दे दी। आगे चलकर इस ग्रंथ को पूरा करने में भी उन्होंने पूरा सहयोग किया। यह ग्रंथ संवन् १९७९ में प्रकाशित हुआ और इसका अच्छा प्रचार भी हुआ। संवत् १९८४ में इसकी दूसरी आवृत्ति छपी। सन् १९२९ में इस ग्रंथ के संबंध में बाबू रामचंद्र वर्म्मा से मेरा मत न मिला। जो शर्तें मैं लगाना चाहता था उनके मानने में उन्होंने आगा-पीछा किया और निश्चित शर्तों का पालन भी बहुत न किया।

पहले मेरा विचार था कि “आलोचना-रहस्य” नामक एक नवीन ग्रंथ लिखूँ, पर मुझे अपना विचार बदलना पड़ा और सन् १९३७ में साहित्यालोचन का नवीन परिवर्द्धित और संशोधित संस्करण इडियन प्रेस-द्वारा प्रकाशित हुआ। इसकी बहुत कुछ सामग्री आलोचना रहस्य के लिखने के समय से ही संगृहीत कर ली गई थी।

(२) भाषाविज्ञान―इसकी रचना तथा प्रकाशन उन्ही परिस्थितियों में हुआ जिनमें साहित्यालोचन का। मेरा विचार था कि इस ग्रंथ को ज्यों का त्यो रहने दिया जाय और एक नवीन ग्रंथ “भाषारहस्य" के नाम से निकले। इसी उद्देश्य से भाषारहत्य का पहला भाग