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मेरी आत्मकहानी
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पंडित पद्मनारायण आचार्य के सहयोग और सहकारिता मे सन् १९३५ मे इंडियन प्रेस-द्वारा प्रकाशित हुआ। पर फिर यह विचार बदलना पड़ा और सन् १९३८ में “भाषाविज्ञान” का परिवर्द्धित और संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ।

इस संबंध में एक घटना उल्लेखनीय है। भाषा-विज्ञान के उस अंश का अँगरेजी अनुवाद, जहाँ खड़ी बोली का विकास दिया गया है, डाक्टर ग्रियर्सन की प्रेरणा से Bulletin of the School of Oriental Studies मे छपा। यह पहला ही अवसर था जब आधुनिक काल की किसी हिंदी-रचना का अंशानुवाद भी अँगरेजी के एक प्रतिष्ठित पत्र मे छपे।

(३) हिंदी-भाषा का विकास―यह भाषाविज्ञान के पहले संस्करण के अतिम अध्याय का अलग पुस्तकाकार रूप था।

(४) गद्यकुसुमावली (सन् १९२५)―इस पुस्तक में मेरे चुने हुए लेखो का संग्रह-मात्र है। इसकी प्रस्तावना रायबहादुर डाक्टर हीरालाल की लिखी है। उसमें ये वाक्य मेरे संबंध मे लिखे हैं।

“व्यक्तित्व भी कोई वस्तु है, जिसकी मोहर लगने से साख चलने लगती है। हिंदी-साहित्य क्षेत्र मे बाबू श्यामसुंदरदास की छाप लगने से प्रामाणिकता का आभास आपसे आप उपस्थित हो जाता है।”

(५) भारतेंदु हरिचन्द्र (सन् १९२७)―भारतेंदु जी के ग्रंथों के अन्त साक्ष्य पर उनकी जीवन-संबंधी घटनाओं का विवेचन इस ग्रंथ मे किया गया है। पहले यह भारतेंदुनाटकावली की प्रस्तावना के रूप मे छपा। पीछे इसके कई संशोधित संस्करण निकले।

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