भारती संस्कृतप्रायो वाग्व्यापारो नटाश्रयः।
भेदः प्ररोचना युक्तैर्वीथीप्रहसनामुखै.॥
श्रयान् भारती वृत्ति वह है जिसमे वाग्व्यापार या बातचीत संस्कृत मे हो,जो नट के आश्रित हो तथा जिसके प्ररोचना के अतिरिक्त वीथी, प्रहसन और आमुख भेद रहते हैं।
साहित्यदर्पण में इसका लक्षण इस प्रकार लिखा है―
भारती संस्कृतप्रायो वाग्व्यापारो नराश्रय.।
तस्या परोचना वीथी तथा प्रहसनामुखे,
अंगान्यत्रोन्मुखीकारः प्रशंमातः प्ररोचना॥
भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में भारती वृत्ति का वर्णन इस प्रकार किया है―
या वाक्प्रधाना पुरुषप्रयोल्या,
स्रोवर्जिता संस्कृतवान्ययुक्ता।
स्वनामधेयै: भरतैः प्रयुक्ता
सा भारती नाम भवेत्तु वृत्तिः॥
इन तीनों लक्षणों के मिलाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारती वृत्ति उस रूपक-रचना-शैली या भाषा-प्रयोग की विशेषता का नाम है जिसे भरत अर्थात् नट लोग प्रयोग मे लाते हैं,नटियाँ नही,और जिसमे संस्कृत भाषा के वाक्यों की अधिकता रहती है। धनंजय और साहित्य-दर्पणकार विश्वनाथ की परिभाषा तो प्राय मिलती-जुलती है,केवल धनंजय का ‘नटाश्रय’ विश्वनाथ मे आकर ‘नराश्रय’ हो गया है। इसके कारण का भी अनुमान किया जा सकता है। ऐसा