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मेरी आत्मकहानी
 

प्रतीत होता है कि आरभ में नट लोग सभासदों दो प्रसन्न करने तथा उनके मन को मुग्ध करके नाटक की ओर आकृष्ट करने के लिये मुख्य वस्तु के पूर्व ही इसका प्रयोग करते थे। पीछे से नाटक के और और अशो में भी इसके प्रयोग का विधान होने लगा जिसमे ‘नटाश्रय’, के स्थान पर ‘नराश्रय', हो गया। भारती वृत्ति के चार अंगों में से प्ररोचना और आमुख का सबंध स्पष्ट पूर्वरंग से है। प्ररोचना प्रस्तुत विषय की प्रशमा के लोगों की उत्कंठा बढाने के कृत्य को रहते हैं। पर भारती वृत्ति के सबंध में वीधी और प्रहसन की व्याख्या आचार्यों ने सष्ट रूप से नहीं की है। हाँ, वीधी के तेरह अंग अवश्य बताएँ हैं जिनका सबंध उतना पूर्वरंग में नहीं जितना कि स्वयं रूपक के कथानक से है। प्रहसन और वीथी रूपक के भेदो मे भी आए हैं। प्रहसन में एक ही अंक होता है जिसमे हास्यरस प्रधान रहता है। वीथी में भी एक ही अक होता है, पर प्रधानता श्रृंगाररस की होती है। दोनो का इतिवृत्त कवि-कल्पित होता है। अनुमान से ऐसा जान पड़ता है कि आरंभ में प्रहसन और वीथी भी प्रस्तावना के अंगमात्र थे। हँसी या मसखरेपन की बातें कहकर अथवा उनके विशेष प्रयोग से युक्त किसी छोटे से कथानक को लेकर तथा श्रृंगाररस-युक्त और विचित्र उक्ति-प्रत्युक्ति से पूर्ण किसी कल्पित पात्र को लेकर दर्शकों का चित्त प्रसन्न किया जाता था। ऐसा जान पड़ता है कि प्रस्तावना के समय अनेक उपायों से सामाजिकों के चित्त को प्रसन्न करके नाटक दखने की ओर उनकी रुचि को उम्मुख और उत्कंठित करना नटों का विशेष कर्त्तव्य समझा