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मेरी आत्मकहानी
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जाता था। पीछे से प्रहसन और वीथी ने स्वतंत्र रूप धारण कर लिया और वे रूपक के भेद-विशेष माने जाने लगे। अथवा यह भी हो सकता है कि आमुख और प्ररोचना तो नाटक के प्रति आकृष्ट करने के लिये और वीथी तथा प्रहसन मध्य या अंत में सामाजिकों की रुचि को सजीव बनाए रखने के लिये प्रयोग मे आते रहे हों। आजकल भी किसी अन्य रस के नाटक के आरंभ, मध्य अथवा अंत में दर्शकों के मनोविनोद के लिये फार्स (जिसके लिये प्रहसन उपयुक्त शब्द है) खेला जाता है। पर धनंजय का यह कथन कि वीथ्यंगो के द्वारा सूत्रधार अर्थ और पात्र का प्रस्ताव करके प्रस्तावना के अंत में चला जाय और तब वस्तु का प्रपंचन आरंभ करे, इस अनुमान के विरुद्ध पड़ता है। इससे तो यही ज्ञात होता है कि संपूर्ण भारतीय वृत्ति का प्रयोग वस्तुमप्रपंचन के पूर्व ही होता था। फिर भी वीथी और प्रहसन को अन्य रूपको के अंश एवं स्वतंत्र रूपक दोनो मानने में कोई आपत्ति नहीं देख पड़ती।

एक मित्र ने इस पुस्तक को समालोचना अपने एक मित्र से करते हुए कहा था कि यह कृति इतनी निकृष्ट नहीं है। इन शब्दो को मैंने अपने कानों से सुना था, पर उन वेचारे को यह पता न था कि उनके पीछे मैं आड़ में खड़ा किसी से बात कर रहा हूँ। अस्तु, उन्होंने इस पुस्तक को औरो की अपेक्षा अच्छा माना यही बड़ी बात है।

इन्ही दिनो नीचे लिखी पुस्तकें भी प्रकाशित हुई―

(१) हस्तलिखित हिंदी पुस्तको का संक्षिप्त विवरण (ना० प्र० सभा १९२३)