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मेरी आत्मकहानी
 

और मैं भी उन्हें अपना पुत्र मानकर उनसे वैसा ही व्यवहार करता रहा । पर कुछ लोगों को हमारी यह घनिष्ठता पसंद न थी। सेठ जी की स्वर्गवासिनी पत्नी बड़ी धर्मशीला और कोमल स्वभाव की थी। उनके आगे इन लोगों को कोई कला नहीं चल पाती थी और वे डाक्टर सेठ को चल-विचल नहीं होने देती थी। उसके देहावमान ने वह स्थिति बदल दी। नित्य के कान फ़ुकने का असर होने लगा। इस प्रकार कुछ दिन बीते । सहमा २३ दिसंबर १९३६ को डाक्टर सेठ मुझसे रुष्ट हो गए और यह रोप यहाँ तक बढ़ा कि समझाने- बुझाने का कोई प्रभाव न पड़ा। उनकी चाहे जैसी भावना हो. और उनके स्वभाव में चाहे जितना परिवर्तन हो जाय, पर मैं उनको उसी पुरानी भावना से देखता रहुंगा और सदा टनकी भलाई की कामना करता रहूँगा। बीमारी ने जब भयकर रूप धारण किया तब सभी लोग बड़े चितित और व्यम हुए। इसी समय ज्योतिर्मूपण पंडित हरिनागयण भट्टाचार्य से मेरा परिचय हुआ। मेरे लड़के, मेरे भाई मोहनलाल के साथ, उनके यहां गए और मेरे स्वास्थ्य के विषय में प्रश्न किया। उन्होंने कहा कि कोई चिता की बात नहीं है अच्छे हो जायेंगे। उन्होंने यह भी बताया कि अमुक दिन फोड़ा फूटेगा और अमुक दिन सव सवाद् निकल नायगा। ठीक ऐसा ही हुआ। अच्छा होने पर मैं फल आदि लेकर उनसे भेंट करने गया। तब से आज तक उनसे प्रेम बना हुआ है और वे पूर्ववत् सौहार्द का बर्ताव करते हैं। वे अव कलकत्ते में रहते हैं।