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मेरी आत्मकहानी
 


जूतों को फेंक आया। उस दिन हम लोग कुछ देर तक यह देखने के लिये ठहरे रहे कि देखें घर जाते समय ये क्या करते हैं। जब कालेज बंद हुआ और ये घर चलने लगे तो देखते हैं कि जूते गायब। वे दौड़े हुए हेड क्लर्क साहब के पास पहुँच कर अपना रोना सुनाने लगे, पर वे क्या कर सकते थे। हम लोग हँसते हँसते घर आए। इस वर्ष टूर्नामेंट हुई। उसके प्रधान प्रबंधक थे अनिहोत्री महाशय धने। कुछ लड़कों ने, जो क्रिकेट के खेल में निपुण थे, इन्हें तंग करने की ठानी। जब वे हुक्म देते तो एक लड़का छिपकर उनके गाल का निशाना एक अंडे से लगाता, बेचारे गाल पोंछते हुए दूसरी तरफ देखते तो दूसरे गाल पर अंडा पट से पड़ जाता। बड़ा होहल्ला मचा और खेल बंद होगया।

इस प्रकार खेल-कूद और पढ़ाई-लिखाई में कालेज का काम समाप्त हुआ। यहाँ इतना और कह देना चाहता हूँ कि इसी विद्यार्थीजीवन में मेरा लेह महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी के ज्येष्ठ पुत्र पंडित अच्युतप्रसाद द्विवेदी क्या बाबू इंद्रनारायणसिंह के भतीजे बाबू गुरुनारायणसिंह से हो गया। हम लोग प्रायः मिला करते और टेनिस आदि का खेल खेलते।

इस तरह पढ़ाई समाप्त हुई। वैनिस साहब बहुत चाहते थे कि मैं संस्कृत में एम॰ ए॰ पास करूं, पर मेरी रुचि उस ओर न थी। इसी वर्ष लखनऊ में टीचर्स ट्रेनिंग कालेज खुला था। मैंने उसमें भरती होने की अर्जी दी और मुझे एक स्कालरशिप भी मिली। मैं लखनऊ गया और सेठ रघुवरदयाल के मकान पर बाबू कृष्णवलदेव