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मेरी आत्मकहानी
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वर्म्मा के साथ ठहरा। ट्रेनिंग कालेज के प्रिंसपल मिस्टर केम्स्टर थे। उनके दाहिने हाथ, पंजाब के एक महाशय, मुंशी प्यारेलाल थे। बोर्डिंग का सब प्रबंध इन्हीं के हाथ में था। मैं चाहता था कि अलग बाबू कृष्णवलदेव के साथ रहूँ पर लाख उद्योग करने पर भी मेरी बात न मानी गई और एक महीना वहाँ रहकर मैं काशी लौट आया। अब चंद्रप्रभा प्रेस में मुझे ४०) रुपया मासिक पर लिटरेरी असिस्टेंट का काम मिला। कई महीने तक मैंने वह काम किया पर वह मुझे अच्छा न लगता था। उसे भी मैंने छोड़ दिया। फिर २० मार्च सन् १८९९ को हिंदू स्कूल में मुझे मास्टरी मिली। मैंने यहाँ १० वर्षों तक काम किया।


(२)
नागरी-प्रचारिणी सभा

सन् १८९३ की बात है। मैं उस समय इंटरमीडियेट के सेकेंड इयर में था। उन दिनों हम लोगों के कई डिबेटिंग क्लब थे, पर उनका कालेज से कोई संबंध न था। छोटे दर्जे के विद्याथियों ने भी अपनी अलग डिबेटिंग सुसाइटी बनाई थी। इसका अधिवेशन प्रतिशनिवार को १२ बजे नार्मल स्कूल में होता था। गर्मी की छुट्टियों में यह काम बंद हो गया। ९ जुलाई सन् १८९३ को इस सुसाइटी का एक अधिवेशन बाबू हरिदास बुआसाव के अस्तबल के ऊपरी कमरे में हुआ। इसमें आर्यसमाज के उपदेशक शंकरजाल जी आए और उन्होंने एक व्याख्यान दिया। पीछे से ये