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मेरी आत्मकहानी
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हम लोग लौट आये। यथासमय उत्सव मनाया गया और द्विवेदी जी को वह ग्रंथ अर्पित किया गया। हम लोगों की बडी उत्कट इच्छा थी कि इस अवसर पराकाशी-विश्वविद्यालय द्विवेदी जी को डाक्टर की आग्नरेरी उपाधि दे| इसके लिये पडित रामनागयण मिश्र न मालवीय जी में मिलर प्राग्रह किया। मालवीय जी को हम लोग मागर उत्सव में लाए और यह सोचा गया कि मालवीय जी के मुंह से यदि आश्चयजनक वाक्य निकल जाय तो आगे उद्योग में सफलता की आशा की जा सकती है। जो कार्यक्रम बनाया गया था उममें मालवीय जी का भाषण न था। यथासमय द्विवेदी जी अपना उत्तर पढ़ने के लिये खडे हुए तो मैने प्रार्थना की कि मालवीय जी के भाषण करने के अनंतर वे अपना वक्तव्य पढ़ें। द्विवेदी जी ने कुछ बिगड़कर कहा कि प्रोग्राम में यह नहीं है। मैंने ममा मांगी और चुपचाप बैठ गया। उत्सव के अनतर पडित रामनारायण मिश्र से ज्ञात हुआ कि द्विवेदी जी के वक्तव्य का प्रभाव मालवीय जी पर अच्छा नहीं पड़ा, पर हम लोग उद्योग करते गए। इधर द्विवेदी जी ने एक पत्र 'लीडर' में छपवाया जिसमें उन्होंने मुझे डाक्टर की उपाधि देने के लिये प्रस्ताव किया। काशी-विश्वविद्यालय का नियम यह है कि आनरेरी उपाधि के लिये केवल वाइस-चैंसलर ही प्रस्ताव कर सकते हैं। दूसरे किसी को ऐसा प्रस्ताव करने का अधिकार नहीं है। मैंने द्विवेदी जी को एक पत्र लिखा कि यह आपने क्या किया। आपको विश्वविद्यालय के नियम नही ज्ञात हैं। इस पत्र का उत्तर उन्होंने यह दिया-