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पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२५५

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मेरी आत्मकहानी
 

गैलतपुर, रायबरेली ११-६-३३ प्रियवर बाबू श्यामसुंदरदास, अनेक आशीर्वचन । आप अपने ८ जून के पोस्टकार्ड के उत्तर में मेरा निवेदन सुनने की कृपा कीजिए। लीडर में छपे हुए मेरे पत्र को पढ़कर आपको आश्चर्य ही नहीं दुःख भी हुआ, यह मेरा दुर्भाग्य है। आपको दुखी करने की प्रवृत्ति मुझमें अवशिष्ट नहीं। दु.ख पहुँचा ही हो तो मैंने जान-बूझकर नहीं पहुँचाया। आप मुझ अपराधी को क्षमा कीजिए। उस संबंध में मैंने आपका नाम केवल मनुष्यत्व के नाते घसीटा। आपको यदि औरों के अभिनदन का हक या अधिकार है तो वही अधिकार आप औरो को अपने विषय में क्यों न दें? इतनी कंजूसी क्यों ? आप अभिनंदनग्रंथ की प्रस्तावना में मेरी स्तुति-प्रशसा करें, और लोग मुझे डाक्टर बनाने के लिये लेख लिखें । मैंने क्या अपराध किया है जो आपके विषय के अपने भाव न व्यक कर सकूँ ? भाई मेरे, मैं आपको अपने से बहुत अधिक अभिनंदनीय समझता है। इसी से मैने वैसा लिखा और आपके अनुसार आपका नाम घसीटा। यह भी मेरी ही गलती हो तो मैं फिर आपसे माफी मांगता हूँ। रही अकारण वैमनस्य उत्पन्न करने की बात—सो सरकार, हृदय या मन में जहाँ वैमनस्य रहता है वहाँ उतनी जगह को मैंने वैमनस्य- प्रूफ करा डाला है। अब वहाँ वैमनस्य की पहुँच नही हो सकती। आप भी वैसा ही कीजिए। फिर वैमनस्य का कहीं पता ही न रहेगा।