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मेरी आत्माकहानी
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हो गया था, जो सभा की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए एक प्रकार से अनिवार्य था। मैंने बहुत चाहा कि यह ऋण क्रमश कम होता चले तो दस-पांच वर्ष में वह चुक जायगा पर एक ऋण के चुकाने का आयोजन होता था कि दूसारा खर्च अचानक सिर पर आ पडता था। मैंने बहुत उद्योग किया पर मुझे सफलता न मिली । आज तक सभा के जितने काम मैंने हाथ में लिए थे उनमें बहुत सोच से काम लिया था और मुझे पूरी सफलता प्राप्त हुई थी। पर अब ऐसा नहीं हो रहा, इसका कुछ कारण अवश्य होना चाहिए। मैंने अपने सब कामो मे ईश्वर की प्रेरणा का स्पष्ट अनुभव किया है। अब यदि मैं अपने उद्योगा मे सफल नहीं हो रहा हूँ तो यही मानना पड़ा कि ईश्वर की यही इच्छा है कि मैं इस काम से विरत हो जाऊँ और दूसरो को उसे करने दूं। यह सोचकर मैंने सभापति से त्यागपत्र दे दिया, क्योकि मिरी तीन वर्ष की अवधि पूरी होनेवाली थी । त्यागपत्र स्वीकृत हुआ, और वाषिक अधिवेशन में मैं पुन. सभापति चुना गया। यह कुछ लोगो को रुचिकर न हुआ और एक Petation of Rights तैयार की गई कि यह चुनाव विधान-विरुद्ध है । इन लोगो का उद्देश्य केवल यह था कि हमारे मार्ग का काँटा दूर हो जाय । इन बातो को खूब विचारकर कि मैंने इस समय के कर्तव्य का निश्चय किया कि सभा के विधान की रक्षा करना मेरा सबसे बड़ा कर्तव्य है। इस निश्चय के अनुसार मैंने १५ जुलाई सन् १९३७ को निम्नलिखित त्यागपत्र दे दिया-

"मैने नियम ३६ पर विचार किया । यद्यपि तिन वर्ष का