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मेरी आत्माकहानी
 

अर्थ सदिग्ध है और उस पर मतभेद हो सकता है, पर सभा के विधान की रक्षा करना प्रत्येक समासद् का कर्तव्य है। वार्षिक अधिवेशन में सभापति ने अपनी सम्मति दी थी, पर उस पर न तो कोई विवाद हुआ और न उन शब्दों का अर्थ निश्चित किया गया। फिर भी इतना निश्चित है कि तीसरे वर्ष के अंश को भी पूरा तीसरा वर्ष मान लेने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हो सकती। अत. मैं सभापति के पद से त्यागपत्र देता हूँ। प्रार्थना है कि सभा इसे स्वीकार करने की कृपा करे।"

यह पत्र १४ अगस्त की साधारण सभा मे ४ मतो के पक्ष और २ मतो के विरोष से स्वीकृत हुआ । कुछ लोग तटस्य रहे और उनमें वे लोग थे जो समय को समझकर चलनेवाले थे। अस्तु, इस प्रकार मैं सभा के कार्यभार से मुक्त हुआ। इसके अनंतर पंडित रामनारायण मिश्रि सभापति चुने गए और उन्होने अपने अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न करके समा का कार्य चलाया। यहाँ यह कह देना आवश्यक और उचित है कि यद्यपि अनेक वर्षो में मेरा उनका मत नहीं मिलता और मैं उनकी कार्य-प्रणाली से सर्वथा सहमत नहीं था, फिर भी यह अवश्य है कि उन्होंने सभा की आर्थिक स्थिति सुधारने का सफलवापूर्वक बड़ा स्तुत्य उद्योग किया और इसके लिये उनका जितना श्रेय माना जाय थोड़ा है। मैंने अब सभा के सब कामों से हाय खींच लिया और १८ अगस्त १९३७ के अनंतर में उसके किसी अधिवेशन या उत्सव में सम्मिलित नहीं हुआ। १५ अक्तूबर से समा-भवन में हिंदी-माहित्य सम्मेलन का २८वौ वार्षिक अधिवेशन ।