सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/२८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मेरी आत्मकहानी
२७३
 

हुआ। उस अवसर पर यह सोचकर कि मेरे न जाने से व्यर्थ भ्रम फैलेगा, मैं तीन दिन सम्मेलन में सम्मिलित होने गया। ईश्वर की प्रेरणा से मैंने ४५ वर्षों तक निरंतर सभा की सेवा की और मैं सदा उसको हित-कामना में रत रहा। पर अब उससे मैं विरत सा हो रहा हूँ। इसमें भी ईश्वर की इच्छा ही प्रबल है।

(१५) विश्वविद्यालय से अवसर ग्रहण करने तथा सभा से अलग होने पर, (यद्यपि मैं उसका सभासद् बना हुआ है) मैंने अपने ग्रंथ साहित्यालोचन, हिंदी-भाषा और साहित्य, और भाषा-विज्ञान के नए परिवर्धित और संशोधित संस्करण प्रस्तुत किए तथा रामायण की टीका को दुहराकर ठीक किया और उसकी नई प्रस्तावना लिखी । इन ४५ वर्षों में मेरे घनिष्ठ मित्रों में अनेक लोग रहे जिनका उल्लेख मैं पिछले प्रकरणों में कहीं-कहीं कर चुका हूँ, इन निम्नलिखित मित्रों से विशेष घनिष्ठता रही--

बाबू राधाचणदास-सा सज्जन और सदय मित्र मिलना तो कठिन है। उनकी कृपा का मैं कहाँ तक उल्लेख करूं। उन्हीं ने मुझे हस्तलिखित पुस्तकों की खोज का काम सिखाया और हिंदी के संवध में अनुसंधान करने की रीति सिखाई। बाबू कार्तिकप्रसाद तो सदा हिंदी के प्रभावो का उल्लेख कर उनको दूर करने के लिये मुझे उत्साहित करते थे। इन दोनों को यदि मैं अपना गुरु मानें तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

बाबू जगनाथदास रत्नाकर' से मेरा परिचय सभा के ही संबंध मे हुआ था। दिनों-दिन प्रेम बढ़ता गया और अत्यंत घनिष्ठता हो फा. १८