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२७४ मेरी आत्मकहानी
 

गाई। वे मुझे अपनी अत्यंत गोपनीय बात भी बताने में कभी संकोच न करते थे। पंडित श्यामबिहारी मिस्र और पंडित शुम्हयविहारी मिस्र से लखनऊ जाने पर विशेष घनिष्ठता हुई। पंडित माधवराव सप्रे तो मेरे अनन्य प्रेमियों में मास्टर काशी प्रसाद जायसवाल से मेरा बहुत पुराना परिचय था। उन सा मित्र मिलना कठिन है। पंडित गौरीशकर हीराचद श्रोमा, डॉक्टर हीरालाल, डाक्टर हीरानद शास्त्री, पडित चद्रधर शर्मा गुलेरी जैसे विद्वानों की मुझ पर सदा कृपा रही। ईश्वर की अत्यंत कृपा है कि श्रोमा जी तथा शास्त्री जी का व्यवहार अभी तक पूर्ववत् चला जाता है। इनकी सज्जनता,सहृदयता और सौहार्द की जहाँ तक प्रशंसा की जाय थोडी है। पड़े सौभाग्य से ऐसे सज्जनो से प्रेम होता और यावत् जीवन बना रहता है। कलक्चे के पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र से भी मेरा अत्यंत स्नेह था। वे प्राय काशी आते थे। उन्हीं ने मुझे काश्मीर ले जाने का उद्योग किया, पर दुर्भाग्य से मुझे वहाँ सफलता न मिली । बाबू माधोप्रसाद, षाबू वेणीप्रसाद, बाबू जुगुलकिशोर और बाबू कृष्णवलदेव वर्मा वो मेरे बडे पुराने मित्र और एक प्रकार से भाई-समान रहे और हैं। अनेक कामों में हम लोगो का साथ रखा और हम लोगों ने सदा निष्कपट सौहाई बरता। पिछले दिनो बाबू जयशंकरप्रसाद तथा बाबू मैथिलीशरण गुप्त से स्नेह बढा । "प्रसाद जी से विशेष घनिष्ठता हो गई थी। मेरी अधिकाश पुस्तकों के प्रकाशक इंडियन प्रेस के स्वामी बाबू चितामरि घोष और उनके पुत्र बाबू हरिकेशव घोष का मेरे प्रती वर्ताब सदा सौजन्यपूर्ण, उदार और सुधा रहा जिसके लिये मैं