यह मनौती मानी कि यदि अदालतों में नागरी का प्रचार हो गया तो मै आकर तुम्हें दूध चढ़ाऊँगा। उस मनौती को उन्होने यथा-समय पूरा किया। इससे उनके धार्मिक भाव तथा नागरी और हिंदी के लिये उत्क्ट प्रेम का परिचय मिलता है।
जब डेपुटेशन भेजने की तैयारी हो रही थी तब उसमें सभा के भी एक प्रतिनिधि के सम्मिलित करने का निश्चय हुआ। सभा ने बाबू राधाकृष्णदास को अपना प्रतिनिधि चुना। पर पंडित मदन-मोहन मालवीय को यह स्वीकार न था। सभा के ओर मालवीय जी के विचार में बडा अंतर था। सभा यह चाहती थी कि जिसने काम किया है उसे ही सम्मान देना चाहिए, पर मालवीय जी के हृदय में दूसरे भाव थे। उनका डेपुटेशन राजाओ, रायबहादुरों और प्रसिद्ध रईसों का था। मालवीय जी के जीवन पर एक साधारण दृष्टि डालने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनके हदय में राजाओं, रईसों आदि के लिये अधिक सम्मान का भाव रहा है। यही कारण है कि उन्हे हिंदू-विश्वविद्यालय की स्थापना में इतनी सहायता मिली कि वे अपने स्वप्न को प्रत्यक्ष रूप दे सके।
अस्तु, समस्या सामने उपस्थित थी, उसके हल करने का एकमात्र उपाय यही था कि स्वय मालवीय जी को सभा का प्रतिनिधि बनाया जाय। ऐसा ही किया गया और इसका परिणाम यह हुआ कि मालवीय जी ने नागरी-प्रचार के लिये जो अथक परिश्रम और प्रशसनीय उद्योग किया था उसका बहुत कुछ श्रेय काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा को उनके प्रतिनिधित्व स्वीकार करने से प्राप्त हो गया।