पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५०
मेरी आत्मकहानी
 

सामने रखकर पहले पहल सर आशुतोष मुकर्जी ने कलकत्ता-विश्व- विद्यालय में अनेक देशी भाषाओं की उच्चतम शिक्षा का प्रबंध किया। इसके अनंतर काशी-विश्वविद्यालय में इसका आयोजन किया गया और तब नागपुर-विश्वविद्यालय, इलाहावाद-विश्वविद्यालय, आगरा-विश्वविद्यालय तथा लखनऊ-विश्वविद्यालय में इसका प्रवध क्यिा गया है। यह सब होते हुए भी अभी तक हिंदी में वैज्ञानिक ग्रंथो का प्रकाशन नाम-मात्र का है। जैसा कि मैं पहले कह आया हूॅ, इसका मुख्य कारण पारिभाषिक शब्दों के पर्यायो की अनिश्चितता है। इस त्रुटि का अनुभव पहले पहल बड़ौदा के महाराज सर सयाजी राव ने किया। उन्होने अपने कलाभवन से प्रोफेसर टी० के० गज्जर के तत्वावधान मे मराठी और गुजराती भाषाओं में वैज्ञानिक ग्रंथों के निर्माण और प्रकाशन का आयोजन किया। वहाँ भी प्रोफेसर गब्बर को पारिभाषिक शब्दों के अभाव ने व्यस्त किया। सन् १८९१-९२ की कलामवन बड़ौदा की वार्षिक रिपोर्ट में प्रोफेसर गब्बर अपनी कठिनाई का उल्लेख इस प्रकार करते हैं―

The reason why but few books were received at the end of the academie year seems to be the want of suitable words―the difficulty of coming appropriate technical terms I have found that the task I have undertaken is one of very great difficulty, and I behave, it will be years before I can successfully accomplish it The transference of European knowledge to this country