पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/७४

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मेरी आत्मकहानी ६७ मे हुआ था। वीम्स इस मत के पक्षपावी थे कि फारसी और अरवी के शब्दो का हिंदी में प्रयोग हो और पाउस इस मत के समर्थक थे कि हिंदी में फारसी और अरबी के उन सब शब्दो का प्रयोग न किया जाय जो हिंदीवत् नहीं हो गए है और यदि हिंदी के कोष मे उपयुक्त शब्द न मिले और दूसरी मापायो से शब्द लेने की आवश्यकता हो तो संस्कृत भाषा का ही पाश्मय लिया जाय । दोनो विद्वानों में इस विषय पर बहुत दिनो तक विवाद चला और अत में यही निश्चय हुआ कि इस विषय का निश्चय हिदी के उत्तम लेखक ही स्वयं कर सकते हैं। इस बात को ३० ( अव तो ६५) वर्ष से अधिक हो गया और अब यह समय आ गया है कि हिंदी की लेख-प्रणाली का निश्चय किया जाय । "किसी भाषा के लिखने की प्रणाली एक-सी नहीं हो सकती। विपयमेद तथा रुचिमेद से भापा का भेद है। पृथ्वी पर जितनी भापाएँ हैं, सभी में कठिन और सरल लेख लिखने की रीति चली पाती है। कहाँ कैसी भापा लिखनी चाहिए, यह लेखक ओर विषय पर निर्भर है। इसके लिये कोई नियम नहीं बन सकता। यदि लेखक की यह इच्छा है कि भाषा कठिन हो तो उसे निस्संदेह संस्कृत के शब्दो का प्रयोग करना होगा और यदि उसकी यह इच्छा है कि भापा सबके सममाने योग्य हो तो उसे हिंदी के सीधे शब्दों को काम में लाना पडेगा। परतु यह वात केवल लेखक पर ही निर्भर नहीं है, विषय पर भी बहुत कुछ निर्भर है। यदि कोई महाशय संस्कृत-दर्शनशास्त्र पर कोई लेख या लिख रहे हैं तो निश्चय