पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लात की आग यह कहानी भी गुर्जर-नरेश कुमारपाल और प्रसिद्ध चौहान नृपति अशोराज की एक अति प्रभावशाली झड़प की कहानी है। इस कहानी में भी सामन्तशाही के काल में राजपूतों की मनोवृत्ति जैसी होती थी, इसमें प्रकट की गई है। अब से पाठ-नौ सौ वर्ष पहले जब बारहवीं शताब्दी का अन्तिम चरण चल रहा था, जव विज्ञान सो रहा था- अगुवम, उदजन और कोवाल्ट वम भूमि के खनिजों में दबे पड़े थे, और मनुष्य के हाथ में सिर्फ एक लोहे का टुकड़ा था--- जिसपर उसका समूचा अहंभाव केन्द्रित था तब तक उसकी दृष्टि को विज्ञान का दूरदर्शी चश्मा नहीं मिला था। वह अपने चारों ओर की थोड़ी ही दूर तक की चीजों को देख सकता था । वह उसी अपनी छोटी सी दुनिया में सबसे श्रेष्ठ, सबसे बड़ा, सवसे ऊपर अपने को प्राज की ही भांति देखना चाहता था। उसका अहंभाव आज के पहाड़-जैसे अहंभाव के मुकाबिले तिल के समान तुच्छ था, पर वह उसीपर गर्वित था, उसीपर सन्तुष्ट था। उन दिनों भारत में तीन हिन्दू राजगद्दियां सर्वोपरि थीं। एक कन्नौज के राठौरों की, दुसरी साम्भर के चौहानों की और तीसरी अनहिल्लपट्टन-गुजरात के सोलंकियों की । इन तीनों में गुजरात के सोलंकी सर्वोपरि थे। उनके नाम का डंका सारे भारत में वजता था । उनका अातंक भारत भर में फैला था, यद्यपि उन दिनों का भारत प्राज का भारत न था. आजकल की रेल, तार, डाक, मोटर, वायुयान न यातायात के सुभीते, न रेडियो था न विजली के प्रसाद। अन्ध युग था वह ! दस कोस के समाचार भी महीनों तक नहीं मिलते थे। प्रत्येक राज्य अपने में, प्रत्येक नगर अपने में, प्रत्येक घर अपने में और प्रत्येक जन अपने में ही सीमित था। गुर्जरेश्वर सोलंकी सिद्धराज जयसिंह बड़े प्रतापी राजा थे। अपने भुजबल का उन्हें बड़ा यमण्ड था। वे पाटन में सब राजाओं मे शीर्षस्थनीय थे। उन्होंने बड़े-बड़े पराक्रम किए जूनागढ़ के राजा खगार को मारकर उसकी स्त्री का

१०३ :

-