पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१२३

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राजपूत कहानिया माता का मुख अपनी तरफ फेरा । क्षण भर दोनों आंख से प्रांख मिलाकर एक- टक एक-दूसरे को देखती रहीं। पुत्री की अर्थपूर्ण दृष्टि और कम्पित होंठ देख- कर उसने कहा—तु क्या सोच रही है लड़की ? 'मां, मैने तलवार की रक्षा का उपाय सोच लिया है। मुझे साहस करने दो।' इसके बाद उसने माता के कान में झुककर कुछ कहा । रानी ने सम्मति नहीं दी, परन्तु वालिका ने हठ करके रानी को सहमत कर ही लिया। भयानक रात थी और आकाश पर बदली छाई थी। किले के पृष्ठ भाग की बुर्जी पर चार प्राणी एक-दूसरे से सटे खड़े थे। रानी ने कहा-बेटी, अव हम न मिलेंगे ? 'नहीं मां, हम मिलेंगे, प्रानन्द और सुख के अक्षय स्थल स्वर्ग में शीघ्र ही।' उसने फसील पर लटकती हुई रस्सी अपने कोमल' हाथों पकड़ी । एक वृद्ध योद्धा ने कम्पित स्वर में कहा- 'बाईजीराज, मुजरा।' 'ठाकरा, माता की प्रतिष्ठा प्रापके हाथ है।' बालिका साहसपूर्वक रस्सी पर से उतरने लगी और उस अन्धकार में लीन हो गई। दूसरे दिन प्रातःकाल एक बालक धूल और कालख से अत्यन्त गन्दा, फटे वस्त्र पहने, नंगे पैर, सिर पर घास का एक बड़ा सा गट्ठा लिए, लड़खड़ाती चाल से मुगल-शिविर में प्रवेश कर रहा था। एक प्रहरी ने कड़ककर पूछा- 'कहां जाता है वदजात ?' 'सरकार मुहम्मद इनाहीम का नौकर हूं, उनके घोड़े की घास ले जा रहा उस अनंत लश्कर में कौन इब्राहीम है, यह प्रहरी क्या जाने ? उसने पीनक में ऊंघते हुए कहा--जा, मर । यवन-दल पड़ा सो रहा था । बहुत कम लोग जागे हुए थे। बालक को और भी एक-दो बार टोका गया और उसने यही उत्तर दिया । वह मुगल-सेना को चीरता चला गया। एक चौकी पर सिपाही ने घुड़ककर कहा