पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१२४

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कुम्भा की तलवार 'इधर श्रावे, घास इधर ला।' 'बहुत अच्छा सरकार।' 'के पैसे ?' 'हजूर गरीब लड़का हूं, जो मर्जी हो दे दें। बालक ने घास सामने फेंक दी। उममें से रस्सी खोली । खुरपी और रस्सी लपेटकर हाथ में ले ली और फिर थककर वही बैठ गया । सिपाही ने कुछ नर्म होकर कहा---- 'इतनी जल्दी घर से क्यों निकला ?' 'सरकार भूखा हूं, पेट सव कराता है।' 'नौकरी करेगा?' 'करूंगा मालिक, पर मेरी बुड़िया मां तीन दिन से भूखी बीमार पड़ी है, उसे कुछ खाना 'ले' सिपाही ने थोड़े पैसे निकालकर फेंक दिए । 'हमारा नाम ताजरखा है नौकरी करना हो तो इधर या जाना ।' 'वहुत अच्छा सरकार, पर कोई रोकेगा ?' सिपाही ने एक पुर्जा लिखकर उसे दिया और कहा-जो तुझे रोके उसे यह दिखा देना। बालक सलाम करके धीरे-धीरे आगे बढ़ा। शिविर की समाप्ति पर प्रहरी ने उसे टोका पर वह पुर्जा देखकर सन्तुष्ट हो गया । बालक ने सकुशल यवन-शिविर पार किया। वह कुछ दूर बढ़ा चला गया। इसके बाद वह ऊंची पहाड़ी पर चढ़ गया और वहां से मूखी लकड़ी बटोरकर आग जला दी। रानी ने कहा-लड़की सुरक्षित यवन-शिविर को पार कर गई। अब विलम्ब का काम नहीं । ठाकरा, अब तुम सब के जने हो ?' 'सव मिलाकर छत्तीस हैं, महारानी ।' 'अच्छा मैं सबको नौकरी से मुक्त करती हूं, जिसकी इच्छा हो यवन सेना- पति को प्रात्मार्पण कर दे।' 'माता, केसर का कड़ाह भरा जाए हम साखा करेंगे।' 'ठाकरां, जीते जी प्रतिष्ठा न जाने पाए।' ऐसा ही होगा माता।'