पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१२५

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१२० राजपूत कहानिया केसर का भारी कड़ाह भरा था। प्रत्येक योद्धा अपना अंगरखा उसमें रंग- रंगकर पहन रहा था। यह स्वेच्छा सेना थी। रानी ने कहा--तो तुम नैयार हो? 'हां, मां।' 'अच्छा ज्यों ही हम अपना कार्य समाप्त कर लें, तुम किले का फाटक खोल शत्रुओं पर टूट पड़ना।' 'जोपाजा।' 'और जब तक एक भी जीवित रहे, यदन किले के फाटक को न छू सकें।' 'जो थाज्ञा।' 'तुम कुल कितने हो?' 'सब छत्तीस हैं। 'तुम छत्तीस हजार हो, जुहर टाकरां?' रानी महलों में चल दी। एक वार छत्तीसों कण्ठों ने गर्जकर कहा- 'जय रानी माता की!' प्रत्येक वीर नंगी तलवार लिए हद निश्चय कर पंक्तिबद्ध खड़ा था। राज- महल में भीषण धड़ाका हुआ और क्षण भर में ही पार की लपटे आकाश को छूने लग गई । यवन-शिविर में हलचल मच गई। छत्तीसो वीर नंगी तलवार लेकर भागे बड़े । उन्होने फाटक खोल दिया। वे सब भूखों मर रहे थे। उनकी प्रांखें निकली पड़ती थी फिर भी वे लौहपुरुष की भांति दृढ़ थे। उनका कर्तव्य पूरा हो चुका था। उन्होंने किले का फाटक खोल दिया, और देखते ही देखने जूझ मरे। बालक के पैर लोहू-लुहान हो रहे थे । पग-पग पर वह लड़खड़ा रहा था। धरती तत्ते तवे की भांति तप रही थी। वह भूख प्यास से प्रध-मरा हो रहा था। उसके वस्त्र चिथड़े हो गए थे। उनमें कांटे और गुल्मों ने लिपटकर उसका अद्भुत्त स्वरूप बना दिया था। वह किसी भांति साहस करके दुर्गम दुरूह घाटी में बढ़ा चला जा रहा था। सामने की टेकड़ी पर जो बटिया दीख रही थी उसी पर चढ़ने का उसका इरादा था। टेकड़ी पर एक भील धनुष पर वाण चढ़ाए इसी पोर देख रहा था। उसने ललकारकर बालक से कहा-वहीं खड़ा रह् । यहां आने का क्या काम है ?