पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१२७

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हल्दी घाटी में मानधनी राणा प्रताप के प्रचण्ड वीरत्व और उनके विद्रोही भाई के साहस और रक्त-सम्बन्ध का मोहक वर्णन इस कहानी में है। वर्षा ऋतु थी, लेकिन पानी नहीं बरसता था। हवा मन्द थी, बहुत गर्मी और घमस थी। एक पहर दिन चढ़ चुका था। कभी-कभी धूप चमक जाती थी। आकाश में बादल छाए हुए थे। अरावली की पहाड़ियों में, हल्दीघाटी की दाहिनी ओर एक ऊंची चोटी पर दो आदमी जल्दी-जल्दी अपने शरीर पर हथियार सजा रहे थे। एक आदमी बलिष्ठ शरीर, लम्बे कद, चौडी छाती वाला था । उसकी घनी और काली मूंछे ऊपर को चढ़ी हुई थीं और आंखें सुर्ख अंगारे की तरह दहक रही थीं। वह सिर से पैर तक फौलादी जिरह-बस्तर से सजा हुअा था । इस आदमी की उम्र कोई चालीस वर्ष की होगी। इसका वदन ताबे की भांति दमक रहा था। दूसरा आदमी भी लम्बे कद का था, किन्तु वह पहले आदमी की अपेक्षा दुबला-पतला था। वह प्रादमी दाढ़ी को बीच में से चीरकर कानों में लपेटे हुए था। उसके सिर पर कुसुमल रंग की पगड़ी बंधी हुई थी। उसके शरीर पर भी लोहे के जिरह-बस्तर थे। एक बहुत बड़ी ढाल उसकी पीठ पर थी और दो सिरोहियां उसकी कमर में बंधी हुई थीं। पहला व्यक्ति अपने सिर पर अपना फौलादी टोप पहन रहा था, किन्तु वह ठीक जंचता नहीं था। दूसरे व्यक्ति ने आगे बढ़कर कहा-घणी खम्मा अन्नदाता ! आज का दिन हमारे जीवन के लिए बहुत महत्त्व का है ! यदि आज नहीं तो फिर कभी नहीं। उसने आगे बढ़कर पहले आदमी के झिलमिले टोप को ठीक तरह से कस दिया और फिर एक विशालकाय भाला उठाकर उस व्यक्ति के हाथ में दे दिया। पहले व्यक्ति ने मर्म-भेदिनी दृष्टि से अपने साथी को देखा । उसने मजबूती से अपनी मुट्ठी में भाले को पकड़ा और मेध-गर्जना की भांति गम्भीर स्वर में कहा-ठाकरां, तुमने ठीक कहा : आज नहीं तो फिर कभी नहीं । १२२. 1