पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१२९

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है १२४ राजपूत कहानिया इस बात का फैसला कैसे होगा कि इस मणि का प्रभाव सबसे अधिक है या मेरे इस मित्र का ?' उसने गर्दपूर्ण दृष्टि से अपने भाले की तरफ देखा, उसे एक बार फिर हिलाया । उस धुधले सूर्य के प्रकाश में उसकी बिजली के समान चमक उसकी आंखों में कोचा मार गई। उसने अपने होंठों को सम्पुट में कस लिया और एक बार फिर जोर से अपने भाले को अपनी मुट्ठी में पकड़ा और कहा- मेरे प्यारे सरदार ? जब तक यह वज्र मणि मेरे हाथ मे है, मुझे किसी दूसरी मणि की परवाह नही। पर्वत की उपत्यिका से सहस्रों कण्ठ-स्वरों का जयघोष सुनाई पड़ा। राणा ने कहा-सेना तैयार दीखती है । अब हम लोगों को चलना चाहिए। वह आगे को वढा और वुड्ढा सरदार उसके पीछे-पीछे । । तीस हजार योद्धा उपत्यिका के समतल मैदान में व्यूहबद्ध खड़े थे। घोडे हिनहिना रहे थे और योद्धाओं की तलवारें झनझना रही थीं। उस समय धूप कुछ तेज हो गई थी, बादल फट गए थे। सुनहरी धूप में योद्धाओं के जिरह- वस्तर और उनके भाले की नोके बिजली की तरह चमक रही थी। वे सब लौहपुरुष थे-सच्चे युद्ध के व्यवसायी, जो मृत्यु के साथ खेलते थे और जिन्होने जीवन को विजय कर लिया था। वे देश और जाति के पिता थे। वे वीरों के वशधर और स्वयं वीर थे। वे अपनी लोहे की छाती की दीवारें बनाए निश्चल खडे थे । चारण और बन्दीगण कड़खे की ताल पर बिरद गा रहे थे । धौ से वज रहे थे । घोड़े और सिपाही-सव कोई उतावले हो रहे थे । सेना के अग्रभाग में एक छोटा सा हरियाली का मैदान था। उसमें १७ योद्धा सिर से पैर तक शस्त्रों से सजे हुए खड़े थे। उनके घोड़े उन्हींके पास थे और वे सब भी जिरह-वस्तर से सुसज्जित थे। सेवक उनकी बागडोर पकड़े हुए थे। ये मेवाड़ के चुने हुए सरदार थे और अपने राजा की प्रतीक्षा में खड़े हुए थे। एकसिंह की भांति राणा ने उनके बीच में पदार्पण किया। सत्रह सरदार पृथ्वी में झुक गए। उनकी तलवारें खनखना उठी और पीठ पर बंधी हुई बडी डालें हिल पड़ी। सेना ने महाराज को देखते ही वज्रध्वनि से जयघोष किया। प्रताप ने एक ऊंचे टीले पर खडे होकर अपने सरदारों और सेना को संबोधित