पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/१३३

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प्रताप ने १२८ राजपूत कहानियां हुई है । वे अपनी अोर उमड़ते हुए मुगलों को ढकेलते हुए आगे बढ़ रहे हैं। कहा-ठाकरां, यह क्या ! सरदार ने दोनों हाथों से तलवार चलाते हुए कहा-अन्नदाता ! आज यह सेवक अपने नमक का हक अदा करेगा। आप हिन्दूकुल के सूर्य है, पीछे को हटते जाइए । असमय में ही सूर्य को प्रस्त न होना चाहिए। जाइए स्वामी । सरदार ने अपने हाथ से चेतक की बाग मोड़ दी। और वे उनको बीच में करके पीछे हटने लगे। बेतोड़ लोह की मारे चारों तरफ से पड़ रही थीं, अपने-पराये की किसीको सूझ न थी। सलूम्बरा सरदार वुड्ढे बाध की भांति भयानक वेग से हाथ चला रहे थे । प्रताप ने थोड़ी देर विश्राम पाकर चैतन्य-लाभ किया। उन्होंने कम्पित स्वर से कहा-~-ठाकरां, आपके वंशजों को इस राजसेवा का पुरस्कार मिलेगा। प्रताप ने चेतक को एड़ी दी और वे युद्ध-क्षेत्र से बाहर आ गए । झिलमिला टोप और मणि सलूम्बरा सरदार के मस्तक और मुजदण्ड पर भुगल-सैन्य के बीच उसी प्रकार देदीप्यमान हो रहे थे और उसी प्रकार वह सुजदण्ड अनेकों मुगलों के सिर काट रहा था। सारा मवन-दल 'अल्लाहो अकबर' का जयनाद करता हुआ उसी झिलमिले टोप और देदीप्यमान मणि को लक्ष्य करते घावे कर रहा था। असंख्य शस्त्र उनपर टूट रहे थे। धीरे-धीरे जैसे मूर्य समुद्र में प्रस्त होता है उसी तरह लहू से भरे हुए उस रण-समुद्र में यह देदीप्यमान मणि से पुरस्कृत वीर भृजदण्ड और प्रताप के झिलमिलाले टोप से सुरक्षित वह उन्नतमस्तक भुकता ही चला गया और अन्त में दृष्टि से प्रोझल हो गया। युद्ध-क्षेत्र कई मील पीछे रह गया था। एक नाले के किनारे प्रताप थकित भाव से एक पत्थर का सहारा लिए हुए पड़े थे और उनका चेतक वहीं पर पड़ा अन्तिम सांस ले रहा था। प्रताप ने पहले अंजलि में जल लेकर मुमूर्षु चेतक के मुंह मे डाला। उसने जल को कण्ठ से उतारकर एक बार अपने स्वामी की ओर देखा और उसके बाद दम तोड़ दिया। वीरों का वंशधर वह प्रतापी राजा अपने उस घोड़े से लिपटकर विलाप करने लगा। उसके घावों से रक्त वह रहा था और उसके अङ्ग-अङ्ग घावों से भरे हुए थे। किसीने पुकारा-- महाराज ! आप जैसे वीर को इस समय कातर होने का मौका नहीं है। प्रताप ने पोखे उटाकर देखा, उनके चिरशत्रु भाई शक्तिसिंह थे। प्रताप ने अवलमान नेत्रो से शक्तिसिंह की ओर देखा और कहा----ऐ शक्तिसिंह, तुम आज